गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कौन हूं मैं....नक्सली तो नहीं!

मैं एक हिंदुस्तानी...पहचाना? नहीं न। मेरे कई और नाम हैं। मसलन भारतीय, इंडियन....। मुझे किसी भी नाम से पुकारो, आत्मा और मन तो वही रहेगा। पर आज कुछ अपने ही भाई मुझे पहचानने तक से इनकार कर रहे हैं। मैं उनकी नजरों में नक्सली, माओवादी, विद्रोही... और न जाने से क्या बन चुका हूं। वे मुझे हत्यारा, उपद्रवी और जाने क्या क्या कह रहे हैं। क्या कोई अपने भाई की हत्या कर सकता है? नक्सली....मैं जन्म से ही नक्सली तो नहीं था ....मुझे ये नाम किसने दिया आखिर अपने ही देशवासियों के खिलाफ जंग का मैदान मेरे लिए किसने तैयार किया? आखिर वह कौन था, जिसने मुझे हथियार उठाने पर मजबूर किया? आज मेरे घर में रोटी का टुकड़ा भले ही न मिले, गोली और कारतूस जरूर मिलेंगे। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है?

मेरे पूर्वजों ने भी अपनी मिट्टी के लिए कसमें खाई थी। आजादी के आंदोलन में मैंने भी कम खून नहीं बहाया। कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ी। जेल के बाहर और अंदर मैंने भी अंग्रेजों की लाठी खाई। सब कुछ खुशनुमा था कि एक दिन मैं नक्सली करार दे दिया गया। पल भर को लगा सपना है लेकिन हकीकत में ही मेरे अपने बेगाने हो चुके थे। रोटी की लड़ाई कब अस्तित्व का हिस्सा बन गई, पता ही नहीं चला।

कभी मेरे भी आपकी ही तरह ढेर सारे अरमान थे। खुले आकाश में उन्मुक्त उडऩा और ढेर सारे सपने देखना मेरी भी चाहत थी। हर भाई-बहन के दिल में यही जज्बा था कि वो भी हिंदुस्तान का सच्चा सिपाही बने। पर, मेरा यह अरमान कुछ हुक्मरानों को अच्छा नहीं लगा। लोगों के शव पर राजनीति करने वालों ने मुझे 'कातिल’ बना डाला। आखिर क्यों बना मैं कातिल और सबकी नजरों में नक्सली। इसका भी एक जायज और ठोस कारण है।

आधुनिकता की अंधी दौड़ और कुंठित हुक्मरानों ने मेरे घर और जंगलों पर डाका मार कर मुझे बेघर कर दिया। पहले मेरा घर छीना और फिर जंगल। अब मेरे घर की जगह चार-छह लेन की सड़कें जगमगाती हुई मुंह चिढ़ाती है। दौड़ते बस-ट्रकों का काफिला मुझे अचंभित तो करता है पर सुहाता नहीं। मेरे बच्चे सड़क पर इस डर से कदम नहीं रखते की कहीं कोई ट्रक कुचल न डाले। मेरी रोजी-रोटी जंगल से चलती थी। जंगल की लकडिय़ों से हमारे घर का चूल्हा जलता था। और एक दिन सरकार ने इसे भी अपने अधिकार में लेकर मुझे बेसहारा कर दिया।

मैंने रोटी मांगी, उन्होंने मुझे कटोरा थमा दिया। मैंने अपने बच्चों के लिए शिक्षा मांगी तो मेरी जमीन ही छीन ली। मैं दाने दाने को मोहताज हो गया, लेकिन सरकार की आंख नहीं खुली। मैं तंग आ गया और सरकार को ही बदलने का सपना देखने लगा। असल में विद्रोह की आड़ में वो अपना ही उल्लू सीधा कर रहे थे। नए राज्यों के नाम पर उन्होंने हमारे परिवार में फूट कराई। मेरे भोलेपन का नाजायज फायदा उठाकर कभी गुरूजी, कभी महंत बनकर हमारा शोषण किया। किसी ने बताया कि सरकार को बदल डालो तो हालात भी बदल जाएंगे। भाई बहनों को साथ लेकर मैं जंगल में आ गया और बारूदी सुरंगें खोदने लगा। ये जाने बिना कि कभी इन सुरंगों का शिकार मेरे मासूम बच्चे भी हो सक ते हैं।

मैं ये विद्रोह त्याग सकता हूं, मैं भी सामान्य और खुशहाल जिंदगी जीना चाहता हूं. बशर्ते सरकार इसका आश्वासन दे। मैं जन्म से ही नक्सली नहीं हूं और यही कारण है कि इतना होने के बाद भी खुशहाल जीवन के सपने देखना नहीं भूला हूं। आपसे अपील है कि मुझे नक्सली कहकर न पुकारें....मैं भी आपकी तरह जीना चाहता हूं। अपनी जमीन पर अपने खेत पर।