रविवार, 30 मई 2010

मुझे कुछ कहना है.....

मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय....। महान गायिका आशा ताई की मधुर स्वरों में गूंजती यह सुरीली तान हमें खुद के पास ले जाता है। जहां, हम स्वयं से बात कर सकते हैं। हां खुद से। मां की लोरी सुनते-सुनते सोना हमारी आदत थी। उनकी आंचल के तले चोरी-छिपे अमरूद और आम खाना हमारा अधिकार था। लगता है कि हमने उस लम्हों को कहीं छोड़ दिया है।

जीवन की इस आपाधापी में शायद हमने खुद को भी भूला दिया है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि कभी हम सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में बातें करें। उन सुरीली यादों को याद करें जिन्हें गांव की गलियों में गुल्ली-डंडा खेलते छोड़ आया था। पापा की मार से बचने के लिए झूठमूठ बीमार होने का बहाना बनाया था। बचपन में बड़ी हसरत थी कि जल्द से जल्द बड़ा हो जाऊं। बड़े होने के कई सारी फायदे दिखते थे। स्कूल जाने से छुट्टी मिलती और पापा की छड़ी से राहत। मैं देखा करता था कि पापा बड़े भईया को तो कुछ नहीं कहते थे। वे उनसे प्यार से बातें करते। वहीं, मेरी छोटी गलती पर भी डांट पड़ती।

आज तन से बड़ा हो गया हूं। जीवन के कई वसंत को पार कर चुका हूं। पर, मन में ढेर सारे सवाल लिए आज भी खुद के भीतर विचरण करता रहता हूं। कई सवाल मन में अनसुलझे हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर इन सवालों का जवाब कहां ढूंढू। कहीं न कहीं इसका जवाब तो मौजूद होगा। कहीं पढ़ा है कि हम-आप जो बोलते हैं वह ब्रह्मांड में मौजूद रहता है। तो क्या मन में उठे सवाल और इसके जवाब भी वहां मौजूद होंगे?

रविवार, 23 मई 2010

इंसान की कीमत कितनी?

हादसा, मौतें और मुआवजा। यह इंसान की नीयत बन चुकी है। हर हादसे के बाद मुआवजे का ऐलान होता है। यह घोषणा वसुधैव कुटुम्बकम की तरह अब भारतीय संस्कृति की पहचान बन चुकी है। पर, यहां भी मुआवजे की राशि कई जातियों में बंटी पड़ी है। यदि आप प्लेन दुर्घटना में अपनी जान गंवाते हैं तो आपके शोकाकुल परिजनों की तो बल्ले-बल्ले। पर, यदि आपकी हैसियत ट्रेन, बस या ऑटो में जान गंवानी की है तो मुआवजे की राशि भी खरीदे गए टिकट की कीमत से तय होती है।

राजधानी, शताब्दी और दुरंतो ट्रेनों में सफर करने वालों की कीमत अलग है। हां, यदि आप जनसाधारण एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में सफर करने वाले यात्री हैं तो रेलवे के मुआवजे में आपको छूट मिलेगी। यही बात, बस, ऑटो और टेंपो से सफर करने में लागू होती है। बस में सफर करते वक्त जान गंवाने पर आपको थोड़े-बहुत पैसे मिल जाएंगे। पर, मोटर साइकिल, ऑटो या टेंपो से मौत को गले लगाने पर विरले ही इसका हकदार बन पाते हैं।

संयोग देखिए कि मुआवजे की राशि भी अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित है। मंगलौर हवाई दुर्घटना में शोकाकुल परिजनों को प्रत्येक मृतक के हिसाब से ७६ लाख रुपए की भारी-भरकम राशि मिलेगी। इसके अलावा प्रधानमंत्री कोष और प्रदेश सरकार की मदद अलग शामिल है। मतलब साफ है कि जिसने हादसे में अपनी जान गंवाई, वे तो भगवान के प्यारे हो गए। पर पैसे का भोग कोई और करेगा। किंतु, ये दुनिया का शाश्वत नियम है कि कमाता कोई और है और भोगता कोई और।

अरे भाई आप इस मुगालते में मत रहिए कि मुआवजे की घोषणा के साथ ही लाखों रुपए का चेक आपके घर पर कोई डाकिया लेकर देगा। अब आपको साबित करना होगा कि मरा हुआ आदमी सचमुच ईश्वर को प्यारा हो गया है। कहीं उसका भूत फिर से जिंदा न हो जाए, इसके लिए सरकारी बाबूओं को कोई पुख्ता सबूत देना होगा। फिर शुरू होगा लालफीताशाही का कुचक्र। इसमें आप ऐसे पिसेंगे कि मृतक की आत्मा भी कराह उठेगी!

पर, मुआवजों का खेल तो सालों से चलता रहा है। यह आज भी बदस्तूर जारी है। बस राज कपूर की फिल्म ‘कल आज और कल’ की तरह। हां, यहां समय के परिपेक्ष्य में मंच के किरदार जरूर बदल जाते हैं।

शनिवार, 22 मई 2010

आईएसआई का बढ़ता मकड़जाल

बहुत दिनों पहले आमिर खान अभिनीत ‘सरफरोश’ फिल्म आई थी। इसमें आईपीएस ऑफिसर राठौड़ (आमिर खान) को देश के अंदर मौजूद आतंकी गतिविधियों में लिप्त लोगों से लोहा लेता दिखाया गया है। साथ ही पड़ोसी मुल्क के लोग भी हमारे असंतुष्ट देशवासियों को अपनों के विरूद्ध मदद करते हैं। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई नक्सलियों को हथियार और पैसे की मदद देकर देश में तबाही मचाने को उकसाते हैं।

कितनी दुख की बात है कि परदे पर दिखने वाले ये काल्पनिक पात्र सच्चाई में आज भी हमारे देश में मौजूद हैं। अभी तक सुरक्षा और खुफिया अधिकारियों को संदेह था कि आईएसआई हिंदुस्तान में विघटनकारी तत्वों को बढ़ावा दे रही है। पर, मेघालय के सक्रिय आतंकी संगठन जीएनएलए के प्रमुख आर संगमा का बयान हमें चौंकाता है। संगमा स्पष्ट करते हैं कि आईएसआई ने उन्हें भारतीय सुरक्षाबलों से लड़ने में मदद की पेशकश की थी। हालांकि मदद की लेनदेन को लेकर दोनों में क्या बातचीत हुई, इसका खुलासा करने से उन्हें परहेज है।

छत्तीसगढ़ में हालिया हुए नक्सली वारदातों से यह साबित हुआ कि देश के अंदर मौजूद दुश्मनों को हमारे पड़ोसी मुल्क का वरदहस्त है। इन नक्सलियों को सिर्फ हथियार और पैसे की मदद नहीं मिल रही है। बल्कि, उन्हें सुनियोजित तरीके से प्रशिक्षित किया जा रहा है। पता नहीं, हमारे देशवासी कब चेतेंगे।

अपने ही देशवासियों के खिलाफ हथियार उठाना कतई सही नहीं है। और फिर मारकाट मचाकर तबाही फैलाना कहां का न्याय है? क्या यह सचमुच अधिकार की लड़ाई है? दुख तो तब होता है जब हमारे कुछ राजनेता राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए इन हत्यारों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। महज चंद वोटों के लिए लोकतंत्र के ये रहनुमा लोकतंत्र की हत्या करने पर उतारू हैं।