सोमवार, 9 नवंबर 2009

विधानसभा को बना दिया सब्जी मंडी!

महाराष्ट्र विधानसभा में एमएनएस विधायकों के कुत्सित खेल से भारतीय लोकतंत्र एकबार फिर शर्मसार हुआ। एमएनएस के विधायकों ने हिंदी में शपथ ले रहे सपा विधायक अबु आजमी का माइक छीन लिया और उनके साथ हाथापाई की। बात यहीं तक नहीं रुकी, उन्होंने सभी विधायकों को मराठी में ही शपथ लेने को कहा। लोकतंत्र भवन में यह तानाशाही, आखिर क्यों? दुर्भाग्य से यह सारा तमाशा मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के सामने हुआ और खामोशी से वे इस 'ऐतिहासिक’ घटना के गवाह बने। आखिर इस चुप्पी के पीछे छिपी ओछी राजनीति का यह कुत्सित खेल कब तक चलता रहेगा?

राज ठाकरे की यह तानाशाही किसी से छुपी नहीं है। कोर्ट से लेकर समाज के हर तबका ने राज के इस नीति का पुरजोर विरोध किया है। पर लोकतंत्र की एक कड़वी सच्चाई यह है कि आप जितना चर्चा में रहते हैं, आपकी लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती जाती है। यही सच हमारे-आपके गले की फंदा बन गई है। राज ने इस तरह का कुत्सित खेल पहले भी खेला है। पहले वे रेलवे स्टेशनों पर परीक्षा देने आए सोए छात्रों पर लाठी बरसाते थे। और अब वही कारनामा विधानसभा में दुहरा रहे हैं।

राज के इस फंदे की डर से हजारों हिंदी भाषियों को मुंबई और अन्य शहरों से भागना पड़ा। पर राजनीति के अजीबोगरीब चक्रव्यूह के कारण सत्तासीन लोगों ने उनकी नकेल नहीं कसी। आज वही राज के कथित 'गुंडे’ लोकतंत्र भवन में अपनी 'गुंडागर्दी’ दिखा रहे हैं। चव्हाण साहब शायद भूल गए हैं कि जिस भस्मासुर को वो बढ़ावा दे रहे हैं, एक दिन वहीं उनके पतन का कारण बनेगा।

रविवार, 8 नवंबर 2009

सिर्फ क्रिकेट पर ही हायतौबा क्यों?

एक मैच में हार और निराशा की बौछार। यही होता है भारत के क्रिकेट प्रशंसकों के साथ। हर क्रिकेट मैच के साथ वह टीवी से ऐसे चिपक जाता है मानो फेविकॉल का प्रचार कर रहा हो। हार-जीत तो खेल का शाश्वत नियम है, पर वह यह नहीं जानना चाहता। सिर्फ एक हार हमारे नायक को खलनायक का पोशाक पहनाने में तनिक भी देर नहीं करती।

गुवाहाटी में हार के साथ ही भारत ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सात मैचों की सीरीज 4-2 से गंवा दी। तेंदुलकर ने हैदराबाद में 175 रनों की बेमिसाल पारी खेली। फिर भी भारत हार गया। सचिन को बधाई देने के बदले कुछ बंधुओं ने उस महान खिलाड़ी के माथे ही इस हार का दोष मढ़ दिया। यह जानते हुए भी कि आखिर अंत तक कंगारूओं ने हार नहीं मानकर इस जीत को हासिल किया। क्या यही पारी ऑस्ट्रेलिया का कोई और खिलाड़ी खेलता और इतना नजदीक जाकर आउट होता तो क्या भारतीय टीम मैच जीतने की आशा जीवंत रख पाती?

और फिर देश में क्रिकेट के अलावा भी तो कई खेल खेले जाते हैं। इसमें हार-जीत मिलने पर तो इतना बहस नहीं होता। यदि खेल को खिलाड़ी और दर्शक की भावना से ही देखें और समझे तो हमलोंगों को हायतौबा मचाने की जरूरत नहीं होगी। काश! ऐसा हर खेल प्रशंसक समझ पाता।