सोमवार, 20 जून 2011

अपनों में बेगाना 'माटी का लाल'

माथे पर चिंता की लकीरें। कमजोर बदन। चेहरों पर झुर्रियां। सफेद दाढ़ी। कुछ ऐसी ही है आज के किसान की तसवीर। विदर्भ हो या बुंदेलखंड। हैदराबाद हो या फिर अमरावती। अब किसानों की सुसाइड की खबरें उसकी मौत के साथ ही दफन हो जाती है। बिना किसी हो-हल्ला के धरती का यह सच्चा लाल मां की आंचल में सो जाता है।

वो भी दौर था जब किसान इस मुल्क की रीढ़ थे। वक्त बदला तो सियासी ताकतों ने भी चोला बदल लिया। अब हमारे हुक्मरान किसानों की भलाई का ढोल जोर से पिटते तो हैं, मगर धरती के लाल को मां से अलग कर। कभी खेती को पुश्तैनी धंधा मानने वाले ये किसान खुद मजदूर बन गए हैं।

यकीन नहीं होता तो कभी दिल्ली-नोएडा से सटे इलाकों को देख आइए। कहने को तो यहां के किसान करोड़पति हैं। दरवाजों पर महंगी गाड़ियां हैं। पर अब निठल्ले होकर नायाब बेरोजगार हो गए हैं।

एक अर्थशास्त्री की लफ्जों में बात करें तो यह सुसुप्त बेरोजगारी है जो हमारे समाज के तानाबाना को खत्म करने पर तुली है। विकास दर की छलांग पर लंबी-लंबी डींग हांकने वाले हुक्मरान खेती का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। खेतिहर मजदूर और गरीब होते जा रहे हैं। समाज में अमीर और गरीब के बीच जो खाई है वह सुरसा की भांति बढ़ती ही जा रही है।

ये देश है वीर जवानों का..अलबेलों का मस्तानों का...और किसानों का भी! वक्त का पहिया हर पल घूमता है। यदि ऐसा हुआ तो किसानों के दिन भी बहुरेंगे। और हम सच में जय जवान, जय किसान का नारा बुलंद कर सकेंगे। क्या कभी ऐसा दिन आएगा कि जब हम गर्व से किसानों को अपना भाई कह सकेंगे?

किसने ली निगमानंद की जान!

पहले अन्ना और फिर रामदेव। इन दोनों के अनशन ने मीडिया की खूब सुर्खियां बटोरी। दोनों एक हद तक अपने मिशन को कामयाब बनाने में सफल भी रहे। पर भला ऐसी किस्मत सबकी थोड़े ही होती है।

इसी बीच खबर आई कि 68 दिनों से अनशन पर बैठे साधु निगमानंद ने आखिरकार दम तोड़ दिया। स्वामी निगमानंद गंगा में अवैध खनन के विरोध में अनशन पर थे। पिछले 13 दिनों से वे हरिद्वार स्थित जॉली ग्रांट अस्पताल में भर्ती थे। संयोग देखिए, बाबा रामदेव भी कुछ दिनों पहले उसी अस्पताल में भर्ती थे। पर बाबा के शोरगुल में एक सच्चे साधु की आवाज दब गई। जिंदा रहने पर चर्चा से कोसों दूर रहने वाले स्वामी मौत के बाद सुर्खियों में हैं। हाय रे किस्मत!

सच में यह दुनिया बहुत बेरहम है। जिंदा होने पर भले ही बूढ़े मां-बाप को भरपेट खाना न मिले, पर मरने के बाद बेटा बेतहाशा पैसा लुटाता है। करोड़ों रुपए डकारने वाले घोटालेबाज जब अनशन मंच पर दिखते हैं तो बहुत कोफ्त होती है। समाज की खातिर निगमानंद जैसे न जाने कितने शख्स बिना किसी चर्चा के इस दुनिया से विदा हो जाते हैं। पर इस मुल्क के कथित कर्णधार अरबों रुपए पचाकर भी जेल में मिठाई और खीर का आनंद लेते हैं।

क्या आपको लगता है कि हमारा सिस्टम पूरी तरह करप्शन और घोटालों की वजह से सड़ चुका है। क्या यहां सच्ची आवाज की कोई कद्र नहीं होती? देशहित के लिए लड़ने वाला इंसान नेताओं की कुत्सित राजनीति के व्यूह में यूं ही दम तोड़ देता है?

शनिवार, 11 जून 2011

'पिकासो ऑफ इंडिया' का जाना

'पिकासो ऑफ इंडिया' के निधन की खबर दिल को रुला गई। मकबूल फिदा हुसैन की शख्सियत के यूं तो कई पहलू हैं, इनमें कई स्याह हैं तो कई श्वेत व निर्मल भी। यदि उनके व्यक्तित्व को खंगालना हो तो हमें एक हिंदुस्तानी के अलावा एक आम इंसान की तरह उन्हें देखना होगा।

हिंदुस्तान में हुसैन की छवि ऐसी रही है जो जानबूझकर अपनी पेंटिंग्स बेचने के लिए विवाद पैदा करता रहा। बात भारतमाता पेंटिंग की हो या फिर हिंदू देवी-देवताओं की तसवीर की। इसके चलते उनपर कई मुकदमे भी दर्ज किए गए। वहीं, दुनियाभर में उनकी पेंटिंग्स को जमकर सराहा गया। वह जहां भी गए, उनकी कलाकारिता और प्रतिभा को वैश्विक दर्पण में हिंदुस्तानी की तरह सराहना और प्रशंसा मिली।

फिल्मों के जबर्दस्त शौकीन एमएफ हुसैन ने नामचीन अभिनेत्रियों माधुरी दीक्षित और तब्बू के साथ फिल्में बनाई। बॉलीवुड में तो कई एक्ट्रेस के साथ उनकी डेटिंग की खबरें भी आती रही। पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित हुसैन को दुनियाभर में कई सम्मानों से नवाजा गया। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में तो उनकी पहली फिल्म 'थ्रू द आई ऑफ पेंटर' को गोल्डेन बीयर पुरस्कार मिला।

महाराष्ट्र के पंढरपुर में 17 सितंबर 1915 को जन्मे मकबूल फिदा हुसैन ने दुनियाभर में हिंदुस्तान का नाम रोशन किया। पेंटिंग्स में राजा रवि वर्मा, अबिंद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल, जैमिनी रॉय, जतिन दास, नंदलाल बोस की सम्मानित पीढ़ियों में हुसैन का हमेशा अलग स्थान रहेगा।

कब लौटेगी पाक में शांति की बयार?

पाकिस्तान में नित नए धमाकों ने आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। ब्लास्ट के बाद इंसानों का क्षतविक्षत शरीर किसी को भी रुलाने के लिए काफी है। पर आतंकियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो बस अंगुलीमाल डाकू की तरह शवों की तादाद बढ़ाने पर जश्न मनाते हैं।

मौत से पहले एक इंटरव्यू में ओसामा बिन लादेन ने कहा था यदि आतंकियों के जेहाद में आम लोगों की कुर्बानी होती है तो ये मौतें जायज है। आतंकी भी उसी राह पर चल पड़े हैं जहां इंसानी रिश्ते, प्यार और भाईचारा उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।

दुख की बात यह है कि इन धमाकों से पाक आवाम का दूर-दूर तक रिश्ता नहीं है। आईएसआई, फौज, सरकार और अमेरिकी मिलीभगत से इन आतंकियों को स्वहित में खड़ा किया गया। आज वही आतंकी मुल्क को खत्म करने पर तुले हैं।