बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

गुम हो गया खाकी वर्दी में सजा डाकिया

बदलते रिश्ते और समय के साथ-साथ अब सब कुछ बदल गया है। यकीनन इस दौर में हमने खुद को बदलने के खातिर पता नहीं क्या-क्या बदल डाले। इसका अहसास हर पल होता है। पर दिल मोबाइल और इंटरनेट से छुट्टïी पाए तो सही! मसलन, अब खाकी वर्दी में सजा डाकिया नजर नहीं आता और अगर भूले भटके दिख भी जाए तो पहले जैसी खुशी नहीं होती।

एक समय था जब हर घर को डाकिया कहलाने वाले मेहमान का बेसब्री से इंतजार होता था। दरवाजे पर उसके कदमों की आहट घर के लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट ला देती थी। लेकिन आज सूचना क्रांति के इस दौर में यह डाकिया 'लुप्त ’ होता जा रहा है। अब तो डाकिया नजर ही नहीं आता, जबकि पहले उसकी आहट से लोग काम छोड़ कर दौड़ पड़ते थे।

डाकिया के आते ही खुशी और गम दोनों का पिटारा एक साथ खुलता था। हर चि_ïी में किसी न किसी के लिए ढेर सारे आशाओं का सौगात रहता था। बूढ़ी मां दरवाजे पर इस आस पर लाठी लेकर बैठी रहती कि शायद इस बार बेटा कुछ रुपए भेज दे। तो घूंघट में चेहरे छुपाए महिलाएं अपने पतियों का बस एक अक्षर देखने को बेकरार रहती। डाकिया के दरवाजे पर आते ही आंगन में कौतूहल मच जाती। हर किसी के मन में यही आस रहती, शायद इस बार मेरा कोई डाक आया हो। कभी-कभी तो डाकिया दरवाजे के आगे से ऐसे गुजर जाता मानो हमें जानता ही न हो। पर मन को कैसे समझाएं। तब भी साईकिल के पीछे दौड़ते हुए हम पूछ ही बैठते कि क्या हमारा कोई डाक आया है! सर हिलाने से हमें जवाब मिल जाता था।

सूचना क्रांति के इस दौर में कागज की चिट्ठी-पत्री को फोन, एसएमएस और ईमेल संदेशों ने कोसों पीछे छोड़ दिया है। कुछ देशों में चार फरवरी को 'थैंक्स अ मेलपर्सन डे ’ मनाया जाता है। पर, जिस तेजी से अत्याधुनिक संचार सेवा का प्रसार हो रहा है उससे लगता है कि बहुत जल्द ही डाक और डाकिया केवल कागजों में सिमटे रह जाएंगे। सूचना क्रांति के इस दौर में घटते महत्व का अहसास डाकियों को भी है। अब जो डाक आ जाती है, वह बांट देते हैं। पहले की तरह अधिक डाक अब नहीं आती। अब तो घरों के सामने डिब्बे लगे रहते हैं, उनमें ही डाक डाल दी जाती है। इनाम तो अब सपना हो गया है।

मुंबई में अराजकता का आलम

मुंबई में शिवसेना और मनसे की तानाशाही चरम पर है। 'मराठी मानुष ’ के स्वयंभू ठेकेदार बाल ठाकरे ने सभी लोगों को चेताया है कि उनकी हर हुक्म की तामील हो या फिर परिणाम भुगतने के लिए सभी (गैर मराठी!) तैयार रहें। आखिर एक तानाशाह से इससे अधिक क्या उम्मीद की जा सकती है? भले ही उनकी खुद की पैदाइश महाराष्टï्र से बाहर हुई हो।

सबसे अजीब बात यह है कि दुनिया के सबसे बड़े (कथित) लोकतांत्रिक देश में यह तानाशाही है और हर कोई सर झुकाकर इसे भोगने को मजबूर है। यह पहली बार नहीं है कि ठाकरे परिवार ने इस तरह का दुस्साहस किया हो। सिर्फ 'मराठी अस्मिता ’ के नाम पर रोटियां सेकने वाले इन नेताओं की मंशा से हर कोई वाकिफ है। मुंबई में ताजा हालात देखकर तो यही लगता है कि ठाकरे की बात नहीं माननेवालों का वहां कोई खैर नहीं।

आईपीएल-3 में विदेशी खिलाडिय़ों को शामिल करने पर कोलकाता नाइटराइडर्स के मालिक शाहरुख खान ने जुबान की क्या थोड़ी सी ढील दी, उनकी तो शामत ही आ गई। तुरंत तुगलकी फरमान जारी हुआ कि मुंबई के सभी सिनेमाघर उनके आगामी फिल्म 'माई नेम इज खान ’ को रिलीज न करें। फरमान पर तत्काल अमल हुआ और कई सिनेमाघरों ने फिल्म के पोस्टर हटा दिए या फिर फाड़ डाले। यह जानते हुए भी कि फिल्म रिजील नहीं करने पर निर्माता और डिस्ट्रीब्यूटर के साथ-साथ उन्हें भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। फिर भी, ये लोग खुद के रोजी-रोटी पर लात मारने को मजबूर हैं।

क्या बाल ठाकरे यह नहीं जानते कि 'सामना ’ का हर शब्द किसी न किसी की रोटी छीन लेता है? पर ठाकरे को भला इससे क्या जरूरत! राजनीति मंच के वे काफी ही मंजे खिलाड़ी हैं। वे जानते हैं कि शरीर भले ही साथ नहीं दे, जुबान की लड़ाई में वे अपने विरोधियों पर वार करते रहेंगे। सोनिया और राहुल गांधी पर निशाना साधकर भले ही वो अपना राजनीतिक हित साध लें, पर इससे आम मराठियों का कोई हित नहीं होने वाला है।

महाराष्टï्र और देश से बाहर उनकी छवि जो बनी है, इसकी भरपाई आखिर कौन करेगा? सिर्फ सत्ता की राजनीति करने वाले ये ठाकरे नहीं जानते कि पिछले कुछ चुनावों से हर बार इसी मराठियों ने उन्हें ठुकराया है। हर बार शक्ति क्षीण होने के बावजूद ठाकरे सिर्फ गुरर्राकर अपनी भड़ास निकालते हैं। सच में सत्ता का एक बार स्वाद चखने के बाद उसे फिर पाने को आतुर ये कथित रहनुमा कब तक देश को जलाते रहेंगे?