रविवार, 18 सितंबर 2011

'आदि' नाम है मेरा....

आइए मैं अपनी कहानी सुनाता हूं....यह कहानी है ऐसे बच्चे की जो सबका प्यारा-दुलारा है...

मेरा नाम 'आदि' है...यानी 'आदित्य नयन'। पर पूरा नाम तो बोलने आता नहीं, इसलिए मैं खुद को 'आदि' बुलाता हूं। सभी लोग मेरा ही नकल कर 'आदि' नाम से बुलाते हैं।

वैसे मैं सबका प्यारा हूं...इसमें मेरी मम्मी, पापा, छोटी मम्मी, बाबा, दाई मां, बा (नाना), मां (नानी), मामा और न जाने कई सारे लोग शामिल हैं...पर सच में मैं हूं सबका दुलारा....

हूं मैं बहुत ही नटखट, प्यारा और मासूम...यदि मेरी पसंद की चीज न मिले तब ही मैं 'बदमाश' सा लगता हूं। मुझे टॉफी, ठंडा (कोल्ड ड्रिंक), समशा (समोशे), हमजा (हाजमोला), सेंटी (परफ्यूम) बेहद पंसद है। शाम में पापा के साथ ऑफिस जाने का मजा लेता हूं..वहां पर झूले पर बैठने का मजा ही कुछ और है, बशर्ते उस पर कोई और बच्चा न हो।

कभी-कभी गुस्से में मम्मी मुझे डांट देती हैं, वैसे वह मुझे प्यार भी सबसे ज्यादा करती है। आखिर भाई करे क्यों नहीं, मैं उनका राज-दुलारा जो ठहरा।

टीवी पर मैं एक ही प्रोग्राम देखता हूं..बी वाला (9XM पर बड़े-छोटे)। पुराने गाने मुझे पंसद नहीं....आजकल बॉडीगार्ड का 'तेरी मेरी प्रेम कहानी...' अच्छा लगता है।

आजकल मैं ताकत बढ़ाने के लिए रोजाना हॉर्लिक्स पीता हूं...पापा कहते हैं इससे बॉडी बनेगा और मैं ऑफिस (पार्क) में बच्चों के साथ ढिशुम-ढिशुम करूंगा...

आजकल पापा ने मुझे एक किताब लाकर दी है...इसमें पंतंग (पतंग), एप्पल, टीवी, फैन न जाने कैसे-कैसे फोटो हैं...अरे हां फोटो से मुझे याद आया कि पापा के मोलो (मोबाइल) में मेरे कई सारे फोटो हैं...कभी मिले तो वह सारे फोटो दिखाऊंगा...

ओके...बाय...

सोमवार, 20 जून 2011

अपनों में बेगाना 'माटी का लाल'

माथे पर चिंता की लकीरें। कमजोर बदन। चेहरों पर झुर्रियां। सफेद दाढ़ी। कुछ ऐसी ही है आज के किसान की तसवीर। विदर्भ हो या बुंदेलखंड। हैदराबाद हो या फिर अमरावती। अब किसानों की सुसाइड की खबरें उसकी मौत के साथ ही दफन हो जाती है। बिना किसी हो-हल्ला के धरती का यह सच्चा लाल मां की आंचल में सो जाता है।

वो भी दौर था जब किसान इस मुल्क की रीढ़ थे। वक्त बदला तो सियासी ताकतों ने भी चोला बदल लिया। अब हमारे हुक्मरान किसानों की भलाई का ढोल जोर से पिटते तो हैं, मगर धरती के लाल को मां से अलग कर। कभी खेती को पुश्तैनी धंधा मानने वाले ये किसान खुद मजदूर बन गए हैं।

यकीन नहीं होता तो कभी दिल्ली-नोएडा से सटे इलाकों को देख आइए। कहने को तो यहां के किसान करोड़पति हैं। दरवाजों पर महंगी गाड़ियां हैं। पर अब निठल्ले होकर नायाब बेरोजगार हो गए हैं।

एक अर्थशास्त्री की लफ्जों में बात करें तो यह सुसुप्त बेरोजगारी है जो हमारे समाज के तानाबाना को खत्म करने पर तुली है। विकास दर की छलांग पर लंबी-लंबी डींग हांकने वाले हुक्मरान खेती का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। खेतिहर मजदूर और गरीब होते जा रहे हैं। समाज में अमीर और गरीब के बीच जो खाई है वह सुरसा की भांति बढ़ती ही जा रही है।

ये देश है वीर जवानों का..अलबेलों का मस्तानों का...और किसानों का भी! वक्त का पहिया हर पल घूमता है। यदि ऐसा हुआ तो किसानों के दिन भी बहुरेंगे। और हम सच में जय जवान, जय किसान का नारा बुलंद कर सकेंगे। क्या कभी ऐसा दिन आएगा कि जब हम गर्व से किसानों को अपना भाई कह सकेंगे?

किसने ली निगमानंद की जान!

पहले अन्ना और फिर रामदेव। इन दोनों के अनशन ने मीडिया की खूब सुर्खियां बटोरी। दोनों एक हद तक अपने मिशन को कामयाब बनाने में सफल भी रहे। पर भला ऐसी किस्मत सबकी थोड़े ही होती है।

इसी बीच खबर आई कि 68 दिनों से अनशन पर बैठे साधु निगमानंद ने आखिरकार दम तोड़ दिया। स्वामी निगमानंद गंगा में अवैध खनन के विरोध में अनशन पर थे। पिछले 13 दिनों से वे हरिद्वार स्थित जॉली ग्रांट अस्पताल में भर्ती थे। संयोग देखिए, बाबा रामदेव भी कुछ दिनों पहले उसी अस्पताल में भर्ती थे। पर बाबा के शोरगुल में एक सच्चे साधु की आवाज दब गई। जिंदा रहने पर चर्चा से कोसों दूर रहने वाले स्वामी मौत के बाद सुर्खियों में हैं। हाय रे किस्मत!

सच में यह दुनिया बहुत बेरहम है। जिंदा होने पर भले ही बूढ़े मां-बाप को भरपेट खाना न मिले, पर मरने के बाद बेटा बेतहाशा पैसा लुटाता है। करोड़ों रुपए डकारने वाले घोटालेबाज जब अनशन मंच पर दिखते हैं तो बहुत कोफ्त होती है। समाज की खातिर निगमानंद जैसे न जाने कितने शख्स बिना किसी चर्चा के इस दुनिया से विदा हो जाते हैं। पर इस मुल्क के कथित कर्णधार अरबों रुपए पचाकर भी जेल में मिठाई और खीर का आनंद लेते हैं।

क्या आपको लगता है कि हमारा सिस्टम पूरी तरह करप्शन और घोटालों की वजह से सड़ चुका है। क्या यहां सच्ची आवाज की कोई कद्र नहीं होती? देशहित के लिए लड़ने वाला इंसान नेताओं की कुत्सित राजनीति के व्यूह में यूं ही दम तोड़ देता है?

शनिवार, 11 जून 2011

'पिकासो ऑफ इंडिया' का जाना

'पिकासो ऑफ इंडिया' के निधन की खबर दिल को रुला गई। मकबूल फिदा हुसैन की शख्सियत के यूं तो कई पहलू हैं, इनमें कई स्याह हैं तो कई श्वेत व निर्मल भी। यदि उनके व्यक्तित्व को खंगालना हो तो हमें एक हिंदुस्तानी के अलावा एक आम इंसान की तरह उन्हें देखना होगा।

हिंदुस्तान में हुसैन की छवि ऐसी रही है जो जानबूझकर अपनी पेंटिंग्स बेचने के लिए विवाद पैदा करता रहा। बात भारतमाता पेंटिंग की हो या फिर हिंदू देवी-देवताओं की तसवीर की। इसके चलते उनपर कई मुकदमे भी दर्ज किए गए। वहीं, दुनियाभर में उनकी पेंटिंग्स को जमकर सराहा गया। वह जहां भी गए, उनकी कलाकारिता और प्रतिभा को वैश्विक दर्पण में हिंदुस्तानी की तरह सराहना और प्रशंसा मिली।

फिल्मों के जबर्दस्त शौकीन एमएफ हुसैन ने नामचीन अभिनेत्रियों माधुरी दीक्षित और तब्बू के साथ फिल्में बनाई। बॉलीवुड में तो कई एक्ट्रेस के साथ उनकी डेटिंग की खबरें भी आती रही। पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित हुसैन को दुनियाभर में कई सम्मानों से नवाजा गया। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में तो उनकी पहली फिल्म 'थ्रू द आई ऑफ पेंटर' को गोल्डेन बीयर पुरस्कार मिला।

महाराष्ट्र के पंढरपुर में 17 सितंबर 1915 को जन्मे मकबूल फिदा हुसैन ने दुनियाभर में हिंदुस्तान का नाम रोशन किया। पेंटिंग्स में राजा रवि वर्मा, अबिंद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल, जैमिनी रॉय, जतिन दास, नंदलाल बोस की सम्मानित पीढ़ियों में हुसैन का हमेशा अलग स्थान रहेगा।

कब लौटेगी पाक में शांति की बयार?

पाकिस्तान में नित नए धमाकों ने आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। ब्लास्ट के बाद इंसानों का क्षतविक्षत शरीर किसी को भी रुलाने के लिए काफी है। पर आतंकियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो बस अंगुलीमाल डाकू की तरह शवों की तादाद बढ़ाने पर जश्न मनाते हैं।

मौत से पहले एक इंटरव्यू में ओसामा बिन लादेन ने कहा था यदि आतंकियों के जेहाद में आम लोगों की कुर्बानी होती है तो ये मौतें जायज है। आतंकी भी उसी राह पर चल पड़े हैं जहां इंसानी रिश्ते, प्यार और भाईचारा उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।

दुख की बात यह है कि इन धमाकों से पाक आवाम का दूर-दूर तक रिश्ता नहीं है। आईएसआई, फौज, सरकार और अमेरिकी मिलीभगत से इन आतंकियों को स्वहित में खड़ा किया गया। आज वही आतंकी मुल्क को खत्म करने पर तुले हैं।

रविवार, 13 मार्च 2011

अगर मैं जिंदा लाश न होतीः अरुणा


हर किसी की अपनी जिंदगी प्यारी होती है। मुझे भी अपनी जिंदगी से उतना ही प्यार था। पर मुझे न तो जिंदगी रास आई और न ही मौत। 37 सालों से बिस्तर पर लेटे मेरे दिमाग में एक ही सवाल घूम रहा है कि आखिर ऐसा क्यों?

मैंने तो बस आम लोगों के जख्म पर मरहम लगाने के लिए नर्स बनने का फैसला किया था, पर मौजूदा हालात ने मुझे जिंदा लाश बना दिया है। एक दरिंदे की मेरी काया पर नजर पड़ी और फिर.....।

27 नवंबर, 1973 की शाम मेरे साथ यह हादसा हुआ। ठीक एक माह बाद मेरी शादी होने वाली थी। मैं बहुत खुश थी कि शहनाई की गूंज में मैं ढेर सारे ख्वाबों की मल्लिका बनूंगी। पर, सपने काश सच हो पाते। मेरे सपनों के हत्यारे को महज 6 साल बाद रिहाई मिल गई। और आज भी मैं खुशियों के हर पल की मोहताज बन गई। मेरे मां-बाप ने तो उस ‘काले दिन’ से ही मुझसे मुंह मोड़ लिया। एक आस थी मौत की, पर लगता है वह भी मुझसे रूठ गई है।

इस हार इतनी हाय-तौबा क्यों?

वर्ल्ड कप में यह पहली हार थी। पर, आदतन टीवी चैनल के स्वयंभू ‘स्मार्ट प्लेयर्स’ का गरजना शुरू हो गया। आलोचना के इस रेले में भला वेब और प्रिंट मीडिया भी कहां पीछे रहनेवाला था। फ्रंट पेज पर बड़े-बड़े अक्षरों में टीम इंडिया को जमकर कोसा गया। ब्लॉगर्स तो एक कदम और निकल गए और अपने-अपने ब्लॉग पर जमकर भड़ास निकाली।

यह सब देखकर एक आम क्रिकेट प्रेमी सिर्फ इन धुरंधरों पर हंस ही सकता है। इस हार से पहले क्रिकेट महाकुंभ में टीम ने चार मैचों में से तीन में जीत और एक टाई खेला था। इस दमदार प्रदर्शन के बदौलत टीम इंडिया क्वार्टर फाइनल में दस्तक दे चुकी थी। प्रोटियाज टीम के साथ यह जोर-आजमाइश की बारी थी। इस बार भाग्य विपक्षी खिलाड़ियों के साथ था और अंतिम ओवर में जीत छीन ले गए।

एक तरह से यह हार टीम इंडिया के लिए वेकअप कॉल थी। यदि टीम यह मैच जीत जाती तो फिर अपनी कमजोरियों पर इतना फोकस नहीं कर पाती, जो बेहद जरूरी है। यदि आप खुद को चैंपियन कहते हैं तो मैदान के बाहर और अंदर इसे साबित करना होता है। आशा है कि धोनी के धुरंधर अपनी गलतियों से सीख लेकर प्रशंसकों को नए साल का खूबसूरत सौगात देंगे।

शनिवार, 5 मार्च 2011

ऑफिस में गर्लफ्रैंड का फोन!

ये क्या कर रहे हो, जल्दी खबर लगाओ। इसी बीच टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज आ गई। उफ ये भी आफत ही है। टीवी पर भी ब्रेकिंग न्यूज अभी ही आनी थी। पर, ये क्या जेब में कुछ हलचल हो रही है। दिमाग में आया कि छोड़ो यार, मोबाइल की ओर देखा तो बैंड बज जाएगी। पर, दिल माने तो सही। आखिर दिल के आगे दिमाग सरेंडर हुआ। उंगलियां धीरे-धीरे जेब में रखे मोबाइल स्क्रीन को टच कर ही गई।

अरे! स्क्रीन पर मेम साहिबा की तसवीर है। अब तो दिल में चुलबुली सी मच गई। हां, बोलो कैसी हो। मैं तो अभी ऑफिस में हूं। जरा धीरे बोलो, बॉस बगल में बैठे हैं। पर, मेम साहिबा को इससे क्या फर्क पड़ता है। इतना कहते ही मेम साहिबा का पारा गरम हो गया। उधर, बॉस भी गरम हो रहे हैं। उफ, एयर कंडीशन हॉल में भी इतनी गरमी। अब सहन नहीं होता, इस गरमी को बाहर निकालना ही पड़ेगा, नहीं तो एटम ब्लास्ट होना तय है। ओ मेरी जान, जरा सब्र करो मैं बाहर आकर तुमसे बात करता हूं। और इतना कहते ही कदम गेट के बाहर चल पड़े।

कुछ संस्थान काम के नाम पर मोबाइल को साइलेंट पर रखने की तुगलकी फरमान जारी करते हैं। मोबाइल की घंटी बजते ही बॉस गुस्साते हैं, वहीं कॉल रिसीव नहीं करने पर गर्लफ्रैंड धमकी देती है। क्या इन मुश्किलों के हल के लिए हर ऑफिस में एक मोबाइल केबिन होना जरूरी है? अपनी राय जरूर दें।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

जख्मी सिपाहियों से वर्ल्ड कप जीतने का ख्वाब!


क्रिकेट मैदान पर खेल सिर्फ बैट और बल्ले के बीच नहीं होता है। बल्कि, प्रतिद्वंद्वी टीम और खिलाड़ी भी एक दूसरे के खिलाफ मेंटल गेम का बखूबी इस्तेमाल करते हैं। पर जब मैदान पर खिलाड़ी ही जख्मी हो तो वह भला कैसे और किसको अपनी हुनर दिखाएगा।

टीम इंडिया पहले से ही सचिन, युवराज और आशीष नेहरा की फिटेनस समस्या से जूझ रही है। अब इस फेहरिश्त में वीरू भी शामिल हो गए हैं। यही हालत कमोबेश चार बार की वर्ल्ड चैंपियन कंगारू टीम की भी है। धाकड़ बल्लेबाज माइक हसी के बाद अब बोलिंजर भी चोटिल होकर बिना एक मैच खेले वतन लौट गए हैं। वेस्टइंडीज में ड्वान ब्रावो भी जख्मी होकर स्वदेश लौट चुके हैं। यही हालत अन्य टीमों की भी है जो अपने जख्मी सिपाहियों का दर्द महससू कर रही है।

आखिर चार साल में एक बार होने वाली इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? क्रिकेट प्रशासक इन जख्मी सिपाहियों की बढ़ती तादाद से चिंतित जरूर हैं। पर न आईसीसी और न ही कोई क्रिकेट बोर्ड ये समझना चाहता है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? उन्हें तो बस चिंता है कहीं इससे वर्ल्ड कप का ग्लैमर न घट जाए?

और तो अब आईपीएल नामक ‘भस्मासुर’ भी पैदा हो गया है। वनडे को निगलने को आतुर यह टूर्नामेंट पता नहीं कितने खिलाड़ियों को जख्मी करेगा। ढेर सारे पैसे कमाने की लालच ने खिलाड़ियों को देश के बदले क्लब के प्रति निष्ठावान बना दिया है। पता नहीं, इन खिलाड़ियों का क्या होगा!

आतंकियों के रंग में रंगे नक्सली

‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना....’ कौमी तराना इंसानों के लिए भूली-बिसरी यादें बन गया है। अब तो इस पर नक्सल और आतंक के स्याह रंग ने इंसानों को ही एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। कभी दंतेवाड़ा में दर्जनों सिपाहियों की हत्या होती है तो कभी इराक, अफगानिस्तान में आतंकी आत्मघाती धमाके कर सैकड़ों लोगों को मौत की नींद में सुला देते हैं।

ऐसी घटनाएं हिंदुस्तान के लिए विशेष रूप से चिंताजनक है। नक्सल और आतंक नामक दो ‘अजगर’ आम लोगों को निगलने के लिए आतुर है। मौजूदा परिदृश्य में ये एक ही सिक्के दो पहलू हैं। इनमें से एक हमारा ही शोषित बंधु है जो अपने भाई-बहनों का कत्लेआम कर रहा है। वहीं दूसरे को ‘इंपोर्ट एनेमी’ कह सकते हैं। इन दोनों का एकमात्र उद्देश्य है लोगों में दहशत और खौफ पैदा करना। यह बहुत ही आश्चर्य की बात है जिन उद्देश्य को लेकर इनका जन्म हुआ, वह बिल्कुल गायब दिखता है।

1967 में सशक्त क्रांति के माध्यम से किसानों और मजदूरों को उनका हक दिलाने के लिए पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान पर नक्सलवाद की शुरुआत हुई। इनके सिद्धांत मार्क्सवाद से प्रभावित थे जबकि तरीके माओवाद से। चीन में सशक्त क्रांति के नेता माओ का कहना था राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। वहीं आतंक का भी बहुत कुछ इसी से मिलता-जुलता स्वरूप है। सबसे खतरनाक बात यह है कि आतंकियों में सबसे अधिक तादाद उन गुमराह मुसलमानों की है जो खुद को इस्लाम का सच्चा सिपाही मानते हैं। उनकी नजर में मूर्तिपूजक और ब्याज लेने वाले लोग काफिर हैं।

उनके दिल और दिमाग को इस तरह से घुट्ठी पिलाई गई है कि काफिरों का कत्लेआम करने के बाद उन्हें जन्नत नसीब होगी। इस बेहोशी में वे स्वधर्मी को भी गोली से भूनने में फक्र महसूस करते हैं। आज नक्सलियों और आतंकियों का सफलता पैमाना शवों का आंकड़ा बन गया है। सरकारी आंकड़े कहते हैं पिछले साल आतंकियों की गोली से 133 लोगों ने अपनी जान गंवाई। वहीं, नक्सलियों ने 908 लोगों को मौत की घाट उतार डाला। इससे साफ है कि देश के सामने आतंकियों से अधिक खतरा नक्सलियों से है।

सबसे दुख की बात यह आम लोगों के स्वघोषित पहरेदार उन्हें की मौत की नींद सुलाने में सबसे आगे हैं। आज देश के 28 राज्यों से 23 राज्य इन नक्सलियों के निशाने पर हैं। इन राज्यों में उन्हें न सिर्फ जनसमर्थन हासिल है, बल्कि हथियार भी यहीं से हासिल होते हैं। इसलिए भारत सरकार को सचेत रहने की जरूरत है कि आतंकवाद पर चिल्लाने के बदले आतंक और नक्सल के बीच महीन लकीर को पहचान कर उसका नेस्तनाबूद करें।

शनिवार, 29 जनवरी 2011

ईडन में क्रिकेट बोल्ड!


आखिर एक बार फिर क्रिकेट की हार हुई। अब यह बिल्कुल तय हो गया है कि 27 फरवरी को कोलकाता के ईडन गार्डंस में भारत-इंग्लैंड के बीच मैच नहीं होगा। पवार और डालमिया के बीच लड़ाई में भले ही किसी की हार-जीत हुई हो, पर पराजय तो क्रिकेट की हुई। आखिर यह समझ से परे है कि जिस आईसीसी का चीफ एक भारतीय हो, वही संस्था ईडन से मैच छीनने की बात करता है। क्या किसी व्यक्ति का अहम राज्य और देश की इज्जत से भी बड़ा है? दुख की बात यह है कि इनमें से आज एक संविधान की शपथ लेकर केंद्र में मंत्री बनकर मजा लूट रहा है।

यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ईडन गार्डंस में तैयारियों को लेकर बीसीसीआई और कैब (क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल) के माथे पर तब तक नहीं बल पड़े, जब तक आईसीसी ने तैयारियों पर सवाल नहीं उठाए। एक बार मैच हाथ से फिसलता देख बोर्ड के आला सुखभोगी अधिकारी के कान खड़े हो गए। मीडिया और आम लोगों में जब थू-थू होने के बाद बीसीसीआई ने आईसीसी से और एक सप्ताह देने की गुहार लगाई। पर, यहां भी पवार का दिल नहीं पसीजा। कोलकाता के क्रिकेट प्रेमियों पर बाउंसर फेंक सीधे उन्हें बोल्ड कर दिया।

तैयारियों को लेकर कुछ ही ऐसी स्थिति अन्य क्रिकेट स्टेडियमों की भी की थी, पर उन्हें तो एक सप्ताह की मोहलत मिल गई। ये चार स्टेडियम इन शहरों में स्थित है-कोलंबो, हंबनबोटा, पाल्लिकेले, वानखेड़े। इनमें से वानखेड़े का स्टेडियम शरद पवार के गृह शहर मुंबई में है। तो फिर किसकी हिम्मत है कि वह मुंबई से मैच छिन लें।

सच में क्रिकेट की इससे बड़ी दुर्दशा और क्या हो सकती थी? और खासकर जब क्रिकेट का महाकुंभ भारत में हो तो फिर यह खेल प्रशंसकों के लिए दर्दनाक जख्म के सिवा क्या है? सच में जब कहीं राजनीति घुसती है तो वह घुन की तरह उसे चाट-चाटकर खत्म कर देती है। कुछ ऐसा ही लोग क्रिकेट प्रशासक बनकर खेल प्रेमियों को जख्मी कर उन्हें रूलाने पर उतारू हैं।

समाज के पालनहारों की जलती हकीकत!

उधर यशवंत सोनावने जल रहे थे और इधर समाज के खूंखार दरिंदे अट्टाहस कर रहे थे। कर्त्तव्य के पालन में एक और मंजूनाथ की बलि चढ़ गई और सरकार कान में तेल डाले सो रही है। इसी तेल को बचाने के लिए सोनावने मौत के मुंह में चले गए। उनका कसूर क्या था। क्या तेल की चोरी को रोकना गुनाह था या फिर ड्यूटी का सच्चे मन से पालन करना गलत था। दरअसल हमारा उद्देश्य यहां आपको गलत और सही की पहचान कराना नहीं है। यहां बात ये उठती है कि आखिर कब तक सरकार अपनी मजे की नींद के लिए मंजूनाथ और सोनावने जैसे कर्त्तव्य निष्ठों की बलि चढ़ाती रहेगी। हालांकि सोनावने को जिंदा जलाने का कृत्य करने वाले गुनहगार गिरफ्तार हो चुके हैं लेकिन इन घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए हमे नहीं लगता कि यह पर्याप्त कदम है।

सोनावने का दोष बस यही था कि उन्होंने तेल माफियाओं की कुत्सित गतिविधियों पर लगाम कसने का साहस जुटाया। यदि उनके समर्थन में महाराष्ट्र के 17 लाख राजपत्रित कर्मचारी तालाबंद का ऐलान कर रहे हैं तो सरकार के कान पर अब जाकर जूं रेंगी है। क्या हमारी सरकार और उसकी नीतियां इतनी कमजोर हो गई है कि किसी ईमानदार ऑफिसर की मौत के बाद ही उसमें जान आती है? बस ऐसे ही हमारे समाज के नीति-निर्माता इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के होनहार ऑफिसर मंजूनाथ की मौत के बाद आत्मा जाग उठी थी! मंजूनाथ की भी गलती यही थी कि उसने तेल माफियाओं पर लगाम कसने की कोशिश की थी। परिणामस्वरूप 19 नवंबर 2005 को तेल तस्करों ने गोली मारकर मौत की नींद सुला दी।

घोटालों और कर्त्तव्यनिष्ठता की पारस्परिक गाथा यहीं खत्म नहीं होती है। अरबों रुपए के घोटाले पर से परदा उठाने वाली कैग पर ही उंगली क्यों उठाई जाती है? हैरानी और शर्म की बात यह है कि संविधान की शपथ लेकर केंद्रीय मंत्री ही इस संवैधानिक संस्था पर प्रश्नचिह्न लगाने से नहीं चूकते?

बात यहीं खत्म नहीं होती..। जब इन घोटालेबाजों पर शिकंजा कसने की बारी आती है तो उनकी जात-पात की रामकहानी शुरू होती है। करोड़ों रुपए डकारने वाले ए राजा पहले तो किसी धांधली से साफ इनकार करते हैं। जब उनपर कानून का फंदा कसता है तो वे खुद को दलित उत्पीड़न का शिकार बताकर लोगों की सहानूभूति बटोरने का प्रयास में जुट जाते हैं।

यदि ये सारी चीजें राजनीतिक और अफसरशाही संस्था से जुड़ी रहती तो दिल को थोड़ा रहम मिलता। पर, अब तो बेईमानी की गंध सबसे विश्वसनीय संस्था न्यायपालिक और आर्मी में भी फैल चुकी है। तभी तो कोई आर्मी का सीनियर ऑफिसर (पीके रथ) सेना के बहुमूल्य जमीन औने-पौने दाम पर किसी निजी बिल्डर के हाथों बेच देता है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस के रिश्तेदार देखते-देखते करोड़पति बन जाते हैं। इलाहाबाद कोर्ट के कुछ जजों पर उच्चतम न्यायालय के जज द्वारा सीधे उंगली उठाई जाती है।

यदि हमारा समाज इन्हीं रास्तों पर चलता रहा तो एक दिन हमारी संस्कृति और सम्मान की मौत होनी तय है। पता नहीं ऐसा करके भारत के ‘महान लोग’ कितना खुश होंगे! पर, एक बात तो तय है कि इस तरह का हर एक कदम हमारे पूर्वजों के सपनों को खोखला करने में जुट गया है।