शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

आतंकियों के रंग में रंगे नक्सली

‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना....’ कौमी तराना इंसानों के लिए भूली-बिसरी यादें बन गया है। अब तो इस पर नक्सल और आतंक के स्याह रंग ने इंसानों को ही एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। कभी दंतेवाड़ा में दर्जनों सिपाहियों की हत्या होती है तो कभी इराक, अफगानिस्तान में आतंकी आत्मघाती धमाके कर सैकड़ों लोगों को मौत की नींद में सुला देते हैं।

ऐसी घटनाएं हिंदुस्तान के लिए विशेष रूप से चिंताजनक है। नक्सल और आतंक नामक दो ‘अजगर’ आम लोगों को निगलने के लिए आतुर है। मौजूदा परिदृश्य में ये एक ही सिक्के दो पहलू हैं। इनमें से एक हमारा ही शोषित बंधु है जो अपने भाई-बहनों का कत्लेआम कर रहा है। वहीं दूसरे को ‘इंपोर्ट एनेमी’ कह सकते हैं। इन दोनों का एकमात्र उद्देश्य है लोगों में दहशत और खौफ पैदा करना। यह बहुत ही आश्चर्य की बात है जिन उद्देश्य को लेकर इनका जन्म हुआ, वह बिल्कुल गायब दिखता है।

1967 में सशक्त क्रांति के माध्यम से किसानों और मजदूरों को उनका हक दिलाने के लिए पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान पर नक्सलवाद की शुरुआत हुई। इनके सिद्धांत मार्क्सवाद से प्रभावित थे जबकि तरीके माओवाद से। चीन में सशक्त क्रांति के नेता माओ का कहना था राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। वहीं आतंक का भी बहुत कुछ इसी से मिलता-जुलता स्वरूप है। सबसे खतरनाक बात यह है कि आतंकियों में सबसे अधिक तादाद उन गुमराह मुसलमानों की है जो खुद को इस्लाम का सच्चा सिपाही मानते हैं। उनकी नजर में मूर्तिपूजक और ब्याज लेने वाले लोग काफिर हैं।

उनके दिल और दिमाग को इस तरह से घुट्ठी पिलाई गई है कि काफिरों का कत्लेआम करने के बाद उन्हें जन्नत नसीब होगी। इस बेहोशी में वे स्वधर्मी को भी गोली से भूनने में फक्र महसूस करते हैं। आज नक्सलियों और आतंकियों का सफलता पैमाना शवों का आंकड़ा बन गया है। सरकारी आंकड़े कहते हैं पिछले साल आतंकियों की गोली से 133 लोगों ने अपनी जान गंवाई। वहीं, नक्सलियों ने 908 लोगों को मौत की घाट उतार डाला। इससे साफ है कि देश के सामने आतंकियों से अधिक खतरा नक्सलियों से है।

सबसे दुख की बात यह आम लोगों के स्वघोषित पहरेदार उन्हें की मौत की नींद सुलाने में सबसे आगे हैं। आज देश के 28 राज्यों से 23 राज्य इन नक्सलियों के निशाने पर हैं। इन राज्यों में उन्हें न सिर्फ जनसमर्थन हासिल है, बल्कि हथियार भी यहीं से हासिल होते हैं। इसलिए भारत सरकार को सचेत रहने की जरूरत है कि आतंकवाद पर चिल्लाने के बदले आतंक और नक्सल के बीच महीन लकीर को पहचान कर उसका नेस्तनाबूद करें।

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