सोमवार, 9 नवंबर 2009

विधानसभा को बना दिया सब्जी मंडी!

महाराष्ट्र विधानसभा में एमएनएस विधायकों के कुत्सित खेल से भारतीय लोकतंत्र एकबार फिर शर्मसार हुआ। एमएनएस के विधायकों ने हिंदी में शपथ ले रहे सपा विधायक अबु आजमी का माइक छीन लिया और उनके साथ हाथापाई की। बात यहीं तक नहीं रुकी, उन्होंने सभी विधायकों को मराठी में ही शपथ लेने को कहा। लोकतंत्र भवन में यह तानाशाही, आखिर क्यों? दुर्भाग्य से यह सारा तमाशा मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के सामने हुआ और खामोशी से वे इस 'ऐतिहासिक’ घटना के गवाह बने। आखिर इस चुप्पी के पीछे छिपी ओछी राजनीति का यह कुत्सित खेल कब तक चलता रहेगा?

राज ठाकरे की यह तानाशाही किसी से छुपी नहीं है। कोर्ट से लेकर समाज के हर तबका ने राज के इस नीति का पुरजोर विरोध किया है। पर लोकतंत्र की एक कड़वी सच्चाई यह है कि आप जितना चर्चा में रहते हैं, आपकी लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती जाती है। यही सच हमारे-आपके गले की फंदा बन गई है। राज ने इस तरह का कुत्सित खेल पहले भी खेला है। पहले वे रेलवे स्टेशनों पर परीक्षा देने आए सोए छात्रों पर लाठी बरसाते थे। और अब वही कारनामा विधानसभा में दुहरा रहे हैं।

राज के इस फंदे की डर से हजारों हिंदी भाषियों को मुंबई और अन्य शहरों से भागना पड़ा। पर राजनीति के अजीबोगरीब चक्रव्यूह के कारण सत्तासीन लोगों ने उनकी नकेल नहीं कसी। आज वही राज के कथित 'गुंडे’ लोकतंत्र भवन में अपनी 'गुंडागर्दी’ दिखा रहे हैं। चव्हाण साहब शायद भूल गए हैं कि जिस भस्मासुर को वो बढ़ावा दे रहे हैं, एक दिन वहीं उनके पतन का कारण बनेगा।

रविवार, 8 नवंबर 2009

सिर्फ क्रिकेट पर ही हायतौबा क्यों?

एक मैच में हार और निराशा की बौछार। यही होता है भारत के क्रिकेट प्रशंसकों के साथ। हर क्रिकेट मैच के साथ वह टीवी से ऐसे चिपक जाता है मानो फेविकॉल का प्रचार कर रहा हो। हार-जीत तो खेल का शाश्वत नियम है, पर वह यह नहीं जानना चाहता। सिर्फ एक हार हमारे नायक को खलनायक का पोशाक पहनाने में तनिक भी देर नहीं करती।

गुवाहाटी में हार के साथ ही भारत ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सात मैचों की सीरीज 4-2 से गंवा दी। तेंदुलकर ने हैदराबाद में 175 रनों की बेमिसाल पारी खेली। फिर भी भारत हार गया। सचिन को बधाई देने के बदले कुछ बंधुओं ने उस महान खिलाड़ी के माथे ही इस हार का दोष मढ़ दिया। यह जानते हुए भी कि आखिर अंत तक कंगारूओं ने हार नहीं मानकर इस जीत को हासिल किया। क्या यही पारी ऑस्ट्रेलिया का कोई और खिलाड़ी खेलता और इतना नजदीक जाकर आउट होता तो क्या भारतीय टीम मैच जीतने की आशा जीवंत रख पाती?

और फिर देश में क्रिकेट के अलावा भी तो कई खेल खेले जाते हैं। इसमें हार-जीत मिलने पर तो इतना बहस नहीं होता। यदि खेल को खिलाड़ी और दर्शक की भावना से ही देखें और समझे तो हमलोंगों को हायतौबा मचाने की जरूरत नहीं होगी। काश! ऐसा हर खेल प्रशंसक समझ पाता।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

मास्टर जी उसे सिखाना

मास्टर जी उसे सिखाना
समय भले ही लग जाय, पर
यदि सिखा सको तो उसे सिखाना
कि पाए हुए पांच से अधिक मूल्यवान-
स्वयं एक कमाना


पाई हुई हार को कैसे झेले,
उसे यह भी सिखाना
और साथ ही सिखाना,
जीत की खुशियां मनाना


यदि हो सके तो ईष्र्या या द्वेष से परे हटाना
और जीवन में छिपी
मौन मुस्कान का पाठ पढ़ाना
जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना
कि दूसरों को आतंकित करने वाला
स्वयं कमजोर होता है।


(अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र के शिक्षक को लिखे गए पत्र का एक अंश)

रविवार, 6 सितंबर 2009

कुर्सी के पीछे भागते 'जनसेवक’

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के आंध्रप्रदेश में जिस तरह राजनीति का कुत्सित खेल खेला जा रहा है, वह अक्षम्य और अप्रशंसनीय है। वाईएस राजेशखर रेड्डी की मौत के बाद सीएम की कुर्सी को लेकर जोड़तोड़ शुरू हो गई है। मौत के अभी चंद दिन ही गुजरे हैं, किंतु वहां पदलोलुप राजनेताओं ने अपना (वाजिब!) हक दिखाना (भीख मांगना!) आरंभ कर दिया है। विधानसभा जैसे पवित्र सदन में उन्होंने जिस तरह नारेबाजी और हंगामा किया, इसे देखकर हर भारतीय का सर अपने आप झुक जाएगा।

जनसेवक से ये राजनेता कब 'जनभक्षक’ बन गए, पता नहीं चला। अभी भी हमारे समाज में किसी की मौत पर खास अवधि तक शोक मनाया जाता है। पर, (दुर्भाग्य से) वहां तो कुर्सी को लेकर राजनीतिक शोक मनाने की एक अलग ही परंपरा चल पड़ी है। आखिर ये राजनेता क्या सिद्ध करना चाहते हैं? या फिर इस मैराथन दौड़ में वल्र्ड चैंपियन बोल्ट का रिकॉर्ड तोडऩा चाहते हैं? या उनकी मंशा कुछ और ही है?

यह होड़ किसी एक खास राज्य तक सीमित नहीं है। आज देश के हर कोने-चौराहे पर यह एक परंपरा सी बन गई है। आंध्रप्रदेश में दिवंगत राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन को सीएम बनाने की मांग की जा रही है। पर क्या जगन को सिर्फ इसलिए सीएम बनाना चाहिए कि वे दिवंगत मुख्यमंत्री के बेटे हैं? यदि यह परंपरा राजनीति में संवैधानिक तरीके से आरक्षित होती है, तो फिर काबिलियत और प्रतिभा का पैमाना ही क्या रहेगा?

तो फिर, इस अंधी दौड़ में एक मंदबुद्धि और मूर्ख भी अपने गौरवशाली पिता के स्थान पर उसकी गद्दी का वारिस का दावा करने से पीछे नहीं हटेगा। पर, दुख की बात यह है कि देश को चलाने वाले राजनेता ही इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। आज हर सीएम, एमएलए और एमपी अपने बेटे-बेटियों को ही वारिस बनाना चाहता है। ताकि राजनीति में उनका वंश हमेशा चलता रहे। भला ऐसा क्यों?

बुधवार, 26 अगस्त 2009

अब तेरा क्या होगा पंटर?

खेल में हार और जीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह हर खिलाड़ी के जीवन में आता है। पर यदि कोई खिलाड़ी सिर्फ हार के बाद (हार का डर?) आगामी सीरीज (इंग्लैंड के खिलाफ) में आराम करने की चाहत दिखाए, उसे आप क्या कहेंगे। ऐसा ही कुछ हमारे कंगारू कप्तान रिकी पोंटिंग कर रहे हैं। एशेज में हार क्या मिली, रिकी ने आराम करने की घोषणा कर दी। खासकर उस हालात में जब टीम के प्रदर्शन और नेतृत्वशैली की जमकर आलोचना हो रही हो। हार के बाद सभी खिलाडिय़ों का आत्मविश्वास बुरी तरह डगमगा गया है। इस हालात में कप्तान को चाहिए था कि वह सामने आकर सभी खिलाडिय़ों को एक नई राह दिखाते। पर अफसोस! रिकी टीम की कमान छोड़कर भागते दिख रहे हैं।

एशेज सीरीज में 2-1 से हार से क्या मिली, ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट के बुरे दिन आने शुरू हो गए। पोंटिंग को आजीवन अब ऐसे ताज संभालना होगा, जिनकी वो कल्पना भी नहीं करना चाहेंगे। वे अब ऐसे दूसरे कप्तान बन गए हैं, जिन्हें एशेज सीरीज में दो बार इंग्लैंड के हाथों सीरीज हारने का दंश झेलना पड़ा। पंटर की कामयाबी के घोड़े उस वक्त तक आसमान में काफी तेजी से उड़ते रहे, जब टीम में शेन वार्न, मैक्ग्रा, गिली जैसे खिलाडिय़ों का साथ मिला।

बुढ़ाते खिलाड़ी को ढोने का जुआ आखिर कब तक चयनकर्ता खेलते, इसलिए टीम से वरिष्ठï और अनुभवी खिलाडिय़ों को संन्यास लेने पर मजबूर किया गया। टेस्ट क्रिकेट में दूसरे सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले शेन वार्न ने खेल को विदाई दी। आईपीएल की चकाचौंध और बेशुमार पैसे ने एडम गिलक्रिस्ट और मैथ्यू हेडेन जैसे खिलाडिय़ों का कैरियर समय से पहले ही खत्म कर दिया। एंड्र्यू सायमंड्स को अनुशासनहीनता के चलते छुट्टी दे दी गई और टीम ने एक बेजोड़ और खब्बू खिलाड़ी को खो दिया।

इस सबके बीच नॉर्थ, ब्रैड हेडिन जैसे खिलाडिय़ों को टीम में मौका मिला, पर ये खिलाड़ी इन महान खिलाडिय़ों के कहीं भी आसपास नहीं दिखे। और पहली बार ऑस्ट्रेलिया को पिछले सात साल में टेस्ट रैंकिंग में चौथे पायदान पर खिसकना पड़ा। यदि टीम की रैंकिंग में गिरावट आए तो टीम इसे आगामी सीरीज में हासिल कर सकती है, किंतु कोई खिलाड़ी अपनी कमजोरी से मुंह छिपाए तो उस टीम का पराभव निश्चित है। शायद अब ऑस्ट्रेलिया की बादशाहत खतरे में पडऩे के साथ-साथ कमजोर और रीढ़हीन भी हो गई है।

रविवार, 16 अगस्त 2009

किंग खान घेरे में, बौना साबित हुआ 'कॉमन मैन’

दुनिया बदल गई। हिंदुस्तान ने आजादी के 62 साल पूरे कर लिए। पर क्या हमारी मानसिकता और सोच ने इस बदलाव को स्वीकार किया? और जब यह खबर आई कि अभिनेता शाहरुख खान को अमेरिका में यात्रा के दौरान कस्टम अधिकारियों ने पूछताछ के लिए हिरासत में लिया तो मानो भारतीय मीडिया में कोहराम मच गया। हर अभिनेता-नेता के विचार टीवी स्क्रीन पर रंग-बिरंगे गुब्बारे की तरह उछलने लगे। ऐसा लगा हर कोई एक-दूसरे के गुब्बारे को हथियाने में लगा हो। मानो, एक बार फिर से अमेरिकियों ने नागासाकी और हिरोशिमा जैसे विगत किसी हादसा को दुहराया हो।

इस सब के बीच जेहन में सवाल उभरता है कि आखिर क्यों हमारे देश में आज भी एक आम आदमी और सेलीब्रिटीज के बीच अच्छा खासा फासला है। इन सारे मामलों में संवैधानिक मौलिक अधिकार गौण हो जाते हैं और सेलीब्रिटीज अहम बन जाता है। क्या किसी आम भारतीय के साथ ऐसा होता तो इतना बवेला मचता? आखिर एक 'कॉमन मैन ’ और नामचीन हस्ती के बीच इतना दूरी क्यों?

अब जरा इन चार बयानों पर गौर फरमाएं:
'मेरे नाम के आगे खान जुड़ा है और मुझे लगता है कि जांच के लिए बनाई गई सूची में इसका कोई जिक्र नहीं है। ’ - शाहरुख खान
'ऐसा मेरे साथ भी हुआ है। अब तो जिस तरह वे हमारी जांच करते हैं, उसी तरह हमें भी अमेरिकियों की जांच करनी चाहिए। ’ - अंबिका सोनी
'ये अपमानजनक और स्तब्ध कर देने वाला है। मैं ये नहीं कहती कि शाहरुख की जांच मत करो, क्योंकि वो पूरी दुनिया में मशहूर एक्टर है। लेकिन सिर्फ इसलिए रोकना कि उनके नाम में खान जुड़ा है बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। ’ - प्रियंका चोपड़ा
'अमेरिका में जांच के कड़े प्रावधान हैं। तभी तो 9/11 के बाद कोई चरमपंथी घटना नहीं हुई। ये तो सबके साथ होता। इसे तूल नहीं देना चाहिए। ’ - सलमान खान


इनमें तीन सिनेमा से जुड़े हैं और एक राजनीति के झंडे को जोर से थामी हुई हैं। शाहरुख खान खुद के साथ किए गए बर्ताव से बेहद खिन्न नजर आते हैं। पर वही किंग खान जब सिनेमाई पर्दे पर किसी वरिष्ठï अभिनेता (मसलन मनोज कुमार) का फूहड़ तरीके से मजाक उड़ाते हैं, उनकी शर्मींदगी पता नहीं कहां छू-मंतर हो जाती है। हर चीज को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और बाजार में भुनाना आज कथित इन 'सभ्य पुरुषों ’ की आदत बनती जा रही है। चाहे इमरान हाशमी का मामला हो या फिर किंग खान का।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ दिनों पहले भी हमारे आदरणीय पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को भी इसी जांच प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था। पर शालीन और विनम्र कलाम ने इस घटना को ज्यादा तूल देने के बजाय इसे जांच का हिस्सा मानकर विराम लगा दिया। क्या हमारे ये अभिनेता और सेलीब्रिटीज इस उदाहरण को अपने जीवन में अपनाएंगे?

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

किस बात की आजादी?

आज हम आजाद हैं! हर साल की तरह इस बार भी हमारे हाथ में तिरंगा होगा और मंच पर भाषण देते जनता के (सच्चे) प्रतिनिधि। टीवी-रेडियो पर देशभक्ति के गाने बजेंगे और फिर अचानक एक शून्य...। काल के पहिए यथावत ही चलते रहेंगे और तब तक स्वतंत्र भारत एक और बसंत पार कर चुका होगा। पर क्या सिर्फ इतना कर देने से एक भारतीय का फर्ज खत्म हो जाता है?

इन सबके बीच एक सवाल सुलगता है कि आखिर कब तक अंग्रेजों से मिली गुलामी को खत्म करने का जश्न मनाते रहेंगे? सिर्फ पंद्रह अगस्त को झंडा फहराकर एक भारतीय का फर्ज निभाना ही आजादी है? या फिर शहरों की चकाचौंध में अपना अस्तित्व तलाशता एक ग्रामीण युवा की हसरत? क्या यह शारीरिक सुख की आजादी है या फिर मानसिक परतंत्रता की बेड़ी...। क्या यह आजादी सच में इतनी प्यारी है कि हम या आप किसी बात पर सहसा ही मुस्कुरा सके? क्या यही एक भारतीय की नीयति है? और शायद हां और ना के बीच झूलता एक अनसुलझा सवाल भी। अरमान और आशा के साथ उस सपने का क्या होगा, जिसके कल्पित अनुभव हमारे नीति-निर्धारकों ने देखे होंगे।

कड़वा सच तो यह है कि आज का दमकता भारत शहरों में बसता है। गांवों और वहां बसे लोगों की सुध किसी को नहीं है। हर बात पर प्रशासन और सरकार पर भड़ास निकालकर क्या हम अपनी दायित्व से मुंह नहीं छिपा रहे? सरकार की हर योजना और नीतियां शहर के इर्द-गिर्द घूमती है। शहर के लोग यदि खुश हैं तो भारत भी खुश (शायद मेरे इस विचार से कई लोग असहमत हो सकते हैं)! पर, आज हमारे 'बापू का गांव ’ किसी को नहीं दिखता। कहने को तो 'नरेगा ’ और ना जाने कैसी-कैसी योजनाएं (जो सिर्फ नेताओं को याद दिलाती है) चलाई जा रही है, पर यह किस तरह से कार्यान्वित हो रही है कोई नहीं जानना चाहता।

गांव की गरीबी कितनी भयावह है, किसी को कहने की जरूरत नहीं है। आज जब देश के 150 से ज्यादा जिले (सरकारी तौर पर) सूखे घोषित किए जा चुके हैं, तो जीएमओ (गु्रप ऑफ मिनिस्टर) सूखे से बचने का उपाय ढूंढ रहा है। एक किसान के माथे पर चिंताएं की लकीर खींच चुकी है, क्या कोई इसे मिटाने को सोचेगा। खेत में फसल नहीं लगी, और आगे.....? पसीने की आखिरी बूंद तो खेत में डाल दी और अब....?

कहीं न कहीं इस हालात के लिए हम सभी दोषी हैं। आज यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमने अपनों के लिए कितना क्या, बल्कि इससे हमारे आसपास के लोग कितने लाभान्वित हुए? गांव छूटा, तो शहर आ गए। कड़ी मशक्कत के बाद मंजिल मिली तो एक फ्लैट लेकर किसी अपार्टमेंट में खुद को कैद कर लिया। और फिर भूल गए जन्मभूमि को.....। यह किस्सा हर एक नौजवान के साथ जुड़ा है जो आज शहर की चकाचौंध में अपना अस्तित्व तलाशने में जुटा है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि साल में कम से कम एक बार ही सही हर नौजवान अपनी मिट्टी का कर्ज अदा करने गांव-कस्बा की ओर रुख करें। शायद इससे सिर्फ एक बार ही सही किसी का आंसू पोंछने का हमें मौका मिले।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

मेरा क्या कसूर?

यह कहानी है हमारे-आपके जैसे आम युवक की। खेत-खलिहान में खेलते-कूदते बड़ा हुआ। हमारे पास खेत बस इतनी थी कि बमुश्किल दो वक्त का खाना मिल पाता। मेरी पढ़ाई गांव में हुई, तो स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी में कमजोर रहा। और एक दिन गांव की चौपाल से निकलकर शहर में कदम रखा।

कॉलेज में एडमिशन लेते ही नौकरी के बारे में सोचने लगा। ट्यूशन पढ़ाकर जैसे-तैसे पढ़ाई जारी रखी। और जब नौकरी पाने की जद्दोजहद शुरू हुई तो न जाने कब इंजीनीयिर और डॉक्टर बनने का सपना खत्म हो चुका था। इसलिए मैंने रेलवे और एसएससी की परीक्षाओं के लिए अप्लाई करना शुरू किया।

.....एक दिन मैंने देखा कि हमारे सपने को राजनीति के मेज पर कत्ल किया जा रहा है। लालदुर्ग को तहस-नहस करने के लिए जो पासा फेंका जा रहा था,उसके मोहरे हम थे। हमारे सपने टूट रहे थे और मेज पर यस मैडम-2 की तालियां बज रही थी। मैं तो दीदी के इस फैसले पर अवाक था। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था और मैं.......।

मैं मानता हूं कि ममता दीदी ने खुद के बदौलत राजनीति में जो मुकाम बनाया, सराहनीय है। पर यदि लोगों का गला काटकर वोट की राजनीति किया जाए तो यह तनिक भी सहनीय नहीं है। केंद्रीय रेल मंत्री के ताजा प्रस्ताव को मंजूरी मिली तो लाखों हिंदीभाषी भारतीयों के सपने चकनाचूर हो जाएंगे। एक छात्र जो करीब 12-14 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद रेलवे के गैंगमैन और क्लर्क की नौकरी पाने का ख्वाब देखता है, उसके हसरत पर तो ग्रहण लगना स्वाभाविक ही है। प्रस्ताव के मुताबिक अब रेलवे भर्ती बोर्ड परीक्षा के प्रश्नपत्र सिर्फ दो भाषाओं अंग्रेजी और स्थानीय भाषा में होंगे। यानी उत्तर भारतीय छात्रों को इन नौकरियों से दूर करने के लिए पहला कदम। दूसरा कदम यह है कि स्थानीय लोगों को 50 फीसदी सीटें आरक्षित मिले। आखिर क्षेत्रवाद की राजनीति में इन मेहनती और कर्मठ छात्रों को क्या गलती?

इन छात्रों की हसरत किस तरह सपनें बुनती है, जरा दीदी को पटना, इलाहाबाद, इंदौर या जयपुर के लॉज में रहकर पढ़ाई कर रहे छात्रों से पूछना होगा। दिन-रात एक कर देने वाले ये युवक सिर्फ एक नौकरी पाने के लिए सप्ताह में चार दिन ट्रेन, बस और ऑटोरिक्शा में बीता देते हैं। न्यू जलपाईगुड़ी, कोलकाता, अहमदाबाद, दिल्ली, मुंबई, कटक, तिरुवनंतपुरम जैसे शहरों में रेलवे प्लेटफॉर्म पर रात गुजारने वाले ये छात्र सभी मुश्किलों को झेलते हुए परीक्षा हॉल में प्रवेश करते हैं। उस समय थकान और भूख के बीच भी सपना पूरा करने की कशश बाकी रहती है। यात्रा के दौरान उन्हें टीटीई की फजीहत और रेलवे पुलिस का रौब भी झेलना पड़ता है, जो अलग बात है। आखिर इन छात्रों का बस इतना ही कसूर है कि उन्होंने 'बीमारू ’ प्रदेश में जन्म लिया और मेहनत के सहारे नौकरी पाने की तमन्ना की। और आज जब उनके इस सपने को भी छीना जा रहा है तो हर कोई चुप है। आखिर क्यों?

शनिवार, 27 जून 2009

मौत ने बनाया विलेन को हीरो

पॉप सिंगर माइकल जैक्सन नहीं रहे। इस खबर ने हर किसी को अंदर से झकझोर दिया। वैसे तो हर मौत दुखदायी होती है, पर यदि कोई अपना हमसे बिछुड़ता है तो मानो गमों का पहाड़ टूट पड़ता है। पर क्या किसी की जिंदगी का मूल्यांकन उसकी मौत के बाद ही करना सही है? पॉप जगत के शहंशाह रहे जैक्सन के साथ ही कुछ ऐसा हो रहा है।

भले ही माइकल की मौत की वजह पर संशय का बाजार कितना ही गरम क्यों न हो? पर एक बात मन में उथल-पुथल मचा रही है। आखिर क्या माइकल मरने के बाद ही इतने महान हुए? जैक्सन अचानक प्रेरणास्रोत कैसे बन गए? कुछ दिन पहले जैक्सन का कोई नाम नहीं लेना चाहता था, वह लोगों के लिए आइकॉन कैसे बने? हमारे समाज में किसी को आसमान पर चढ़ाना और फिर जमीन पर पटकना आम रीति है। पर हम भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं उसकी सफलता या असफलता के लिए हम भी जिम्मेदार हैं।

मजदूर परिवार में जन्मे जैक्सन ने सफलता की कई गाथाएं लिखी। पर इसके बाद क्या? माइकल पर बच्चों के साथ यौन शोषण के अमर्यादित आरोप लगे? किन्हीं ने उन्हें समलैंगिक बताया तो किसी ने उन्हें दुराचारी कहा? अदालत ने उन्हें निर्दोष करार दिया, पर उनके चरित्र पर लगा दाग हमेशा के लिए रह गया। आरोपों की झड़ी सी लग गई और एक समय सबसे अमीर पॉप स्टॉर कर्ज की दलदल में धंसता चल गया।

और जब उनकी मौत (हॉर्ट अटैक से?) हुई तो खबर सुनते ही दुनिया भर में प्रशंसक सदमे में हैं। क्या इंसानियत का यही धर्म है जब कोई शोहरत की बुलंदी को छुए तो उसकी आरती उतारो और फिर बाद में असफल होते ही.........। आज मीडिया जगत में जैक्सन पर ढेर सारे लेख लिखे जा रहे हैं। पर यही जैक्सन कुछ दिन पहले गुमनामी की जिंदगी जी रहे थे। पत्नी से तलाक, धर्म परिवर्तन और कर्ज में डूबने जैसी खबर मीडिया की सुर्खिया बनी, पर इससे जैक्सन को लाभ के बदले हमेशा नुकसान ही हुआ। और अब जैक्सन हमारे बीच नहीं रहे, एक विलेन अचानक हमारे बीच हीरो बन गया। आखिर क्यों?????

मंगलवार, 23 जून 2009

नौकरी मिली है, मिठाई खाइए

लीजिए, मिठाई खाइए। क्यों शादी तय हुई क्या? नहीं सर, ट्रेनी बना हूं। ...तो दिल ने कहा कि क्यों न सभी का मुंह मीठा कराया जाए। और फिर आपके सामने पेश है लजीज और ताजा-ताजा गुलाबजामुन।


मिठाई देखते ही हर किसी के पेट में चूहे उछलने लगे। यह चूहा कभी इधर फुदकता तो कभी उधर। थोड़ा भी सब्र करने को मान ही नहीं रहा। पर शुरू करें तो कैसे करें। बॉस किसी से बातचीत में मशगूल हैं और दिल है कि मानता नहीं। ओह नो! अब देरी बर्दाश्त नहीं हो रही.....। हिम्मत जुटाई और जा धमका बॉस के आगे। मन में थोड़ी हिचकिचाहट जरूर थी। पर यकीन था कि गुलाबजामुन अपना रंग जरूर जमाएगा (अरे भाई, शकुंतलम से ली है तो इसमें सौंदर्य और प्रेम की मिठास तो होगी ही)। बॉस ने पहली मिठाई ली और और फिर देखते-देखते आधा डब्बा खत्म।


किसी ने आवाज दी, अरे भाई सब्र करो। पहले लंच कर लेते हैं और फिर मुंह मीठा करेंगे। बात तो सही है चटपटा खाना के बाद पेट देवता को मिठाई मिल जाए तो कहना ही क्या...। अभी भी डब्बे में कुछ गुलाबजामुन बचे हैं। हर किसी के दिमाग में एक ही बात घूम रही है कि आखिर कितने बचे होंगे गुलाबजामुन। इधर-उधर नजर घुमाई। थैंक्स गॉड, केवल आठ हैं। हिसाब लगाया तो किलो के हिसाब से तो कम से कम दस मिठाई तो होनी ही चाहिए (आज मालूम हुआ कि हिसाब जानने की अहमियत क्या होती है नहीं तो पत्रकारिता में आने के बाद गिनती भी भूलने लगा था...)।


आखिर सब्र का फल मीठा होता है और यदि इसमें गुलाबजामुन का रस घुला हो तो फिर कहना ही क्या। मिठाई खाने का दूसरा दौर। हर किसी के आगे एक और गुलाबजामुन। हाथ और मुंह का मिलन होते ही चेहरे पर एक अलग ही मुस्कान। तभी किसी ने फुसफुसाते हुए कहा थैंक्यू...।

शनिवार, 13 जून 2009

कुम्हलाता कमल!!!


आपसी खींचतान और गुटबाजी भाजपा को कहां ले जाएगी, कोई नहीं जानता? पहले जसवंत सिंह और अब यशवंत सिन्हा....। यह आंधी तो अभी बस शुरू हुई है, पता नहीं कब किसको उड़ा ले जाए। कमल पताका को लिए ये नेता उसी अनुशासन और समर्पण की बात कर रहे हैं, जिसे उन्होंने बार-बार तोड़ा है। इससे पार्टी की दीवार कमजोर हुई और आम जनता से भी दंडित हुए।


इसका आगाज तो पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू हो गया था। भाजपा के अहम रणनीतिकार अरूण जेटली ने इसे हवा दी। और अब बाकी के नेता इसमें घी डाल रहे हैं। यह एक ऐसा आग है जिससे सबसे अधिक नुकसान पार्टी को ही होगा। एक समय अनुशासन की दुहाई देने वाले ये नेता उसी परंपरा को खत्म करने में जुटे हैं। पद की लोलुपता और सत्ता के प्रति अगाध प्रेम ने भाजपा नेताओं को आम लोगों से दूर कर दिया। सत्ता मोह की खातिर गठबंधन करने वाली भाजपा ने खुद को पार्टी के संविधान और नीतियों से खुद को दूर कर लिया।


आज हालात यह है कि पार्टी में आडवाणी और वाजपेयी के बाद दूसरी पंक्ति के नेताओं का सैन्य समूह आपस में मारकाट करने में लगा है। पर इस फौज में न कोई कर्नल है और न ही कोई सेना। सभी अधिकारी श्रेणी के कथित नेता हैं। हर किसी का अपना गुट है और गुटबाजी को हवा देने वाले अलग-अलग सुर में गान करने वाले गवैये भी। बस एक चीज अगर कॉमन है तो सभी के पास है कमल नामक झंडा।


ये नेता जानते हैं कि प्रेस ब्रीफिंग में भले ही ऊंची-ऊंची बात कहा जाए, जनता के सामने उनकी हैसियत जीरो है। कल्याण सिंह, बाबूलाल मरांडी, उमा भारती, सुरेश मेहता, केशुभाई पटेल जैसा कई नेता इस चीज के भुक्तभोगी हैं। इनमें से कई ने खुद को वनवास की आग में जलाकर घर वापसी भी की, पर उन्हें पहले जैसा न ओहदा मिला और न ही इज्जत।


आम चुनाव के बाद आडवाणी ने पद छोडऩे की पेशकश की और फिर अपनी बात से पलट भी गए। इससे अन्य नेताओं में यह संदेश गया कि यदि नेतृत्वकर्ता ही अपनी बात पर कायम न रहे तो फिर उनकी क्या बिसात। बस यहीं से इनमें सिर-फुट्टौवल शुरू हो गई। आखिर ये नेता कहां जाकर चेतेंगे...। आम लोगों के विकास और उन्नति की दुहाई देने वाले ये राजसेवक पता नहीं कब सुधरेंगे....।

गुरुवार, 11 जून 2009

अधूरी रह गई हबीब की कहानी


जन्म और मौत दुनिया का शाश्वत नियम है। पर अपना जब कोई हमसे दूर हो जाए तो दिल बिलखता है। दिल रोता है और अनायास ही वह न जाने क्यों परमपिता पर भी कुपित हो जाता है। ऐसा ही कुछ तनवीर हबीब के चले जाने से हो रहा है। तनवीर साहब को गुजरे कई दिन हो गए, पर ऐसा लगता कि रंगमंच का मसीहा हमारे बीच ही मौजूद है। खिलखिलाते और सौम्य चेहरे के साथ कुछ कहने की कोशिश कर रहा है.........।


एक ऐसा शख्स जिसने रंगमंच की दुनिया में खुद को समर्पित कर दिया। इंद्रधनुषी रंग के साथ हर रंग में एक कल्पना को पर्दे पर साकार किया। शायद ईश्वर को हमलोगों की अपेक्षा हबीब साहब की ज्यादा जरूरत थी, इसलिए उन्हें अपने पास बुला लिया। यह भी हो सकता है कि जर्जर हो चुके इस पेंटिंग में वे कोई नया रंग डालना चाह रहे हों और हबीब से बेहतर पेंटिंग उन्हें कहीं नहीं मिली हो। पर कुछ भी हो 'ब्लैक एंड व्हाइट ’ का यह सितारा काला स्याह में तब्दील हो चुका है।


रायपुर की गलियों से निकल कर अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर छा कर छत्तीसगढ़ी नाटक और भारतीय रंगमंच को नई पहचान दिलाने वाले हबीब तनवीर अपनी जिंदगी के अनछुए पहलुओं को शब्दों का रूप देना चाहते थे। इसी लिए उन्होंने सफरनामा लिखने का फैसला किया। अपनी आत्मकथा को अपनी ही भाषा में लिखने की कोशिश में लगे तनवीर उसे पूरा नहीं कर पाए।


हबीब तनवीर की सफरनामा को तीन खंडों में लिखने की योजना थी। पहला खंड पूरा हो चुका था, जिसमें उनके शुरुआती संघर्ष से लेकर रंगमंच को नया रूप देने के लिए की गई कोशिशों का ब्योरा दर्ज है। दूसरे खंड में वह अपनी प्रेम कहानी से लेकर अनछुए पहलुओं को समेटना चाहते थे और तीसरे खंड में उन चित्रों का संग्रह होता जो हबीब तनवीर के होने का अर्थ बताते। पहला खंड तो वह पूरा कर चुके थे और दूसरे खंड में अपनी प्रेमिका से पत्नी बनी मोनिका मिश्रा से जुड़ी यादों को गूथने में लगे थे। तभी उन पर बीमारी का हमला हुआ और उनकी जिंदगी की कहानी यहीं पर आकर ठहर गई। और अचानक एक हंसता-खिलखिलाता पुष्प मुरझा गया........।

शुक्रवार, 5 जून 2009

ब्रेकिंग न्यूज : मैं अभी जिंदा हूं!

मंथर चाल से कंप्यूटर के कीबोर्ड पर उंगलियां चल रही थी। हल्की झपकी और उबासी के बीच हर कोई अपने काम में मशगूल था। कि अचानक, टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज आई?????? दाऊद इब्राहिम मारा गया!!!!

हर कोई अवाक रह गया। आपस में गुफ्तगू का शोर मचने लगा। अरे ये क्या दाऊद मारा गया......। भाई जरा टीवी का चैनल बदल करके देखो, क्या सचमुच डी मारा गया? एनडीटीवी, आजतक, आईबीएन-7 से लेकर न्यूज चैनलों में होड़ लग गई कि सबसे पहले दाऊद को किसने मारा। हर कोई अपने खासमखास रिपोर्टर से लाइव दिखा रहा कि दाऊद कैसे मारा गया।

इसी होड़ में वेब वाले भी पीछे कैसे रहते। उनके पास कोई सबूत तो था नहीं कि वो 'डी ’ को मरा दिखा सके। इसलिए उन्होंने खबर चलाई, दाऊद के मरने पर संशय। दाऊद को गोली लगी। दाऊद का भाई अनीस इब्राहिम मारा गया......(शायद इस शोरगुल में अनीस के साथ दाऊद भी चल बसे)।

अभी तक यह खबर सिर्फ टीवी पर आ रही थी। अब इसकी पुष्टि के लिए मैराथन दौड़ आरंभ हुई। दाऊद का इतिहास जोर से खंगालना शुरू हुआ। दाऊद ने कब दादागिरी शुरू की। दाऊद की पहली गोली का निशाना बनने का किसे सौभाग्य मिला। गैंगस्टर ने पहली बार किसे तमाचा मारा.......।

इसी बीच किसी ने कहा कि अभी तक बीबीसी ने इस खबर की पुष्टि नहीं की है। इसलिए इसकी सत्यता संदेह के घेरे में है। फिर देर क्या थी, लीड खबर के हेडिंग का पर कतरकर इसे तीसरी-चौथी जगह ढकेल दिया गया। इसी भागदौड़ में आजतक ने जोर से छलांग लगाई। टीवी पर चमकने लगी --ब्रेकिंग न्यूज : 'मैं अभी जिंदा हूं ’- दाऊद बोला।

सोमवार, 1 जून 2009

बच्चे मन के सच्चे......

बच्चे मन के सच्चे, सारे जग के आंखों के तारे
ये जो नन्हें फूल हैं, भगवान को लगते प्यारे.......

गुनगुनाती एक मासूम लड़की जब टीवी पर आती है तो एक पल के लिए हर किसी की नजर ठहर जाती है। मासूम मुस्कान, गालों पर डिंपल और सबको सम्मोहित करती आवाज हर किसी के लिए कुछ कह जाती है। ऐसा लगता है मानो भगवान खुद हमारे दिल में मिस्री घोल रहा है।

किंतु, हर सपने सच नहीं होते और हर यह सपना भी कहीं न कहीं दम तोड़ रहा है। हमारा समाज न जाने कहां से कहां पहुंच गया, पर हमारी सोच बस वहीं पर पड़ी है। पहले भारत और अब चीन में बेटियां बेमौत मारी जा रही है। हालात यह है कि उसे धरती पर पर्दापण से पहले ही खत्म कर दिया जाता है। चीन जैसे दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले देश में हालात यह है कि लड़कियां समाज और परिवार के लिए बोझ बन गई है।

चीन में एक बच्चे की नीति के चलते लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में काफी कम होती जा रही है। सामाजिक असंतुलन के चलते मानव व्यापार और लड़कियों के अपहरण का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। छोटी उम्र की लड़कियों को पहले अगवा किया जाता है और फिर उसे बेचकर ऊंची कीमत वसूली जाती है। दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले कम्युनिस्ट देश में जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक बच्चे का नियम लागू है। यानी किसी भी जोड़े को बस एक ही बच्चा पैदा करने की इजाजत है। अधिकतर दंपत्ति बेटा ही चाहते हैं। ऐसे में बड़ी संख्या में भ्रूण हत्या की जाती है।

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक चीन में 124 लड़कों पर 100 लड़कियां पैदा हो रही है। एक राज्य में तो यह 192 लड़कों पर 100 लड़कियों का है। इसी वजह से तस्करी के बाजार में लड़कियों की ऊंची कीमत लगती है। यहां तक व्यापार का यह धंधा म्यांमार, लाओस और वियतनाम तक फैला गया है।

इस हालात में एक मन चीखता है कि आखिर कब चेतेगी यह दुनिया और कब जागेगा हमारा समाज? हर संतान की उत्पति तो नारी से होती है। और अगर यह नारी प्रजाति ही खत्म हो गई तो फिर समाज को चलाने वाले ऐसे लोग आएंगे कहां? कहने को हर क्षेत्र में नारी उत्थान की चर्चा होती है, पर क्या यह उत्थान हमारे परिवार में हो रहा है। दिल पर हाथ रखकर कहने वाले शायद कुछ फीसदी ही लोग मिलेंगे। पर क्या इससे हमारा समाज जीवित रह पाएगा?

गुरुवार, 28 मई 2009

बढ़ता मनमोहनी कुनबा

आखिरकार हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कुनबा बढ़ ही गया। लंबी माथापच्ची के बाद 59 मंत्रियों ने शपथ ली। ताजपोशी-1 और ताजपोशी-2 के बाद अब कुल सदस्यों की संख्या 78 तक पहुंच गई है। कानून के मुताबिक मनमोहन परिवार की अधिकतम संख्या 81 हो सकती है। यानी अब यदि पीएम अपने परिवार को बढ़ाना चाहें तो बमुश्किल दो और सदस्य जोड़ सकेंगे। पर लालची नजर और हसरत की कभी भी कोई कमी नहीं रही।

चुनाव परिणाम और ताजपोशी-2 के बीच राजनीतिक रंगमंच पर जिस तरह ड्रामा हुआ, इससे भारतीय राजनीति का तो एक तरह चीरहरण ही हुआ। जनता की सेवा के नाम पर वोट बटोरने वाले ये राजनेता जिस तरह मंत्री पद की ओर लोलुपता से नजर गड़ाए थे, उससे भारतीय लोकतंत्र शर्मशार हुई। करुणानिधि से लेकर ममता ने एक ऐसी गलत परंपरा की शुरुआत की है, जो मनमोहन सिंह के लिए आगे भी मुश्किलें ही पैदा करेगी। 'मैं नहीं तो मेरे बेटे-बेटी ही सही’ के तर्ज पर कई राजनेता अपने वारिस को गद्दी सौंपने में सफल रहे। पर इस तरह की राजनीति 'कॉमन मैन ’ की कितनी भला करेगी, चिंतनीय और शोचनीय है।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

...दरवाजा कभी खुले या न खुले

आजकल हर कोई भारतीय लोकतंत्र के महापर्व में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है। राजनीतिक पार्टियों से लेकर मीडिया में बस यही चर्चा है कि आखिर किसके सिर पर पीएम पद की ताजपोशी होगी। आखिर कौन है जो कांटों का ताज झटकने में कामयाब होगा। ऐसा लगता है कि इस बार चूके तो फिर न जाने किस्मत का दरवाजा फिर कभी खुले या न खुले। जोया अख्तर की 'लक बाय चांस ’ भले ही कुछ खास नहीं चली हो, पर 'पीएम बाई चांस ’ बनने की जो होड़ शुरू हुई....जो अब खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है।

यूं तो हर नेताओं के दिल में हुकहुकी है कि इस बार संप्रग और राजग में कोई भी गठबंधन २७२ के जादुई आंकड़े को स्पर्श नहीं कर पाएगा। यहां तक कि कांग्रेस या भाजपा का तो आप नाम ही भूल जाइए। पर अपना यह नाजुक दिल है न, कुछ तो मानता ही नहीं। दिल कहता है कि नहीं इस बार तो मैं ही प्रधानमंत्री बनूंगा। ज्योतिषी और भविष्यवक्ताओं की इस बार तो चांदी ही चांदी है। चैनल से लेकर हर अखबार इनकी बातों की अटे पड़े हैं कि इस बार कौन पीएम बनेगा। कुछ ज्योतिषियों ने यहां तक कहा कि इस बार शरद पवार इस बार प्रधानमंत्री की रेस में सबसे आगे है। कांग्रेस से विद्रोह कर अलग पार्टी बनाने वाले पवार अब उसी की साथ मिलकर महाराष्टï्र में सत्ता की मलाई खा रहे हैं। पहले केंद्र में कृषि मंत्री बने और फिर बीसीसीआई का कर्ताधर्ता बनने में तनिक भी देर नहीं किए। सब कुछ ठीक रहा तो २०११ में वे आईसीसी का चेयरमैन भी बन ही जाएंगे। पर क्या किस्मत इनको पीएम की कुर्सी तक ले जाएगी?

इस बीच भाजपा में पीएम इन वेटिंग की लिस्ट में एक और नाम जोर-शोर से हलचल मचाने के लिए बेताब है। यह कोई नहीं गोधरा दंगे से कुख्यात और गुजरात में सुशासन के लिए विख्यात रहे नरेंद्र मोदी साहब हैं। भाजपा में पीएम पद के लिए उनका नाम बहुत उछाला जा रहा है। दूसरे कतार के नेताओं का कहना है कि मोदी इस पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हैं। पर यह बात आडवाणी के समकक्ष माने वाले मुरली मनोहर जोशी और उनके समर्थकों को रास नहीं आ रही है। कभी एकता यात्रा से आडवाणी की रथ यात्रा को चुनौती देने वाले जोशी अपनी गाड़ी को ही पंचर कर बैठे हैं। हालात इतनी बुरी है कि पिछले लोकसभा चुनाव में इलाहाबाद से अपनी सीट तक गंवा बैठे।

ये तो बात हुई दो नेताओं की। पर यदि इस लिस्ट में और नामों पर दृष्टिï डाला जाए तो हर पार्टी में कम से कम एक पीएम के प्रत्याशी जरूर हैं। राजद में लालू प्रसाद यादव, बसपा में मायावती, सपा में मुलायम सिंह यादव, बीजद में नवीन पटनायक, लेफ्ट में प्रकाश करात, जद-सेकुलर में एचडी देवगौड़ा और फिर हर दल में छुपे हुए न जाने कितने उम्मीदवार। अर्थात कुर्सी एक और उस पर बैठने वाले अनेक। यदि चुनाव बाद सभी लोग एक ही कुर्सी पर बैठे तो कुर्सी का टूटना तो निश्चित ही है ना। तब न यह कुर्सी बचेगी और न ही इन पर बैठने वाले ये नेतागण। हां, इससे जरूर भारत माता की आत्मा रो पड़ेगी......

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

मुस्कुराया विजय...


खुशियां किसी खास वक्त की मोहताज नहीं होती है। सच में दिल में उमंग-तरंग हो तो फिर चेहरे पर मुस्कान खुद-ब-दुख दस्तक देती है। इस मुस्कान का कायल सिर्फ हमारा दिल नहीं होता, बल्कि आसपास भी यह अपनी सुगंध छोड़ देता है। पर, यह खुशी उस मासूम की है जिसने लड़कपन में अभी कदम ही रखा और मौत ने उससे दोस्ती करनी चाही। क्या हाल हुआ होगा उस मासूम का? उसका दिल कैसे तड़पता होगा? आंसू और मुस्कान में जंग छिड़ गई। पर यह जंग न तो किसी परमाणु हथियार से हुआ और न ही किसी आत्मघाती आतंकी हमले से। अंत में मुस्कान की जीत हुई और आंसू को हथियार डालना पड़ा।


यह कहानी है नौ साल के मासूम विजय की। नाम-विजय। उम्र-नौ साल। मरीज-गंभीर बीमारी थेलेसेमिया का। आखिरी इच्छा-एक बार आईपीएस वर्दी पहनने की। दरवाजे पर मौत ने जोर से कुंडी खटखटाया, पर उसने जिंदगी से हार नहीं मानी और चल पड़ा एक खुशी का बागवां लूटने। खुशकिस्मत कहिए इस यात्रा में उसे ऐसे कई मुसाफिर मिले जो आज भी खुशी व मुस्कान का दीप जला रहे हैं।


अहमदाबाद के कालुपुर-नरोड़ा रोड पर स्थित पारसी के भ_ïा चाली में रहने वाला नौ वर्षीय विजय खानैया थेलेसेमिया बीमारी से ग्रस्त है। डॉक्टर ने परिजनों को बताया है कि विजय अब बस चंद दिनों का मेहमान है। मौत से जूझ रहे विजय का सपना था कि वह आईपीएस का वर्दी पहने। इसके लिए उसने बस कुछ और साल अपने लिए मौत से मांगे। खैर मासूमियत और जिजीविषा कहां हार मानने वाली थी।


जिदंगी ने एक अलग ही राह चुनी। उसने अपने सपनों की पंखुरिया को हवा में उड़ा दिया और फिर न जाने यह कैसे हर जहां को महका गई। और फिर देर ही क्या, कुछ स्वप्निलों के सहयोग से उसका यह सपना भी पूरा हुआ। एक पारंपरिक तरीके से पुलिस कमिश्नर अतुल ने विजय को एक आईपीएस अधिकारी होने का दर्जा दिया। बकायदा विजय ने अन्य मकहमे का निरीक्षण किया और पेट्रोलिंग पर भी गए। जिस दुकान से यूनिफॉर्म खरीदा गया, उस दुकानदार ने पैसा लेने से साफ मना कर दिया।


आज विजय एक नए मुस्कान के साथ मौत को एक नया पैगाम दे रहा है। भले ही चंद दिनों में वह भगवान का प्यारा हो जाए। पर उसकी यह जिजीविषा और मासूमियत का हर कोई कायल होगा। सच में सपने कभी मरते नहीं.....मुस्कान कभी खत्म नहीं होता...।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

''पुष्प की अभिलाषा''

चाह नहीं मैं सुरबाला के,
गहनों में गूंथा जाऊँ.

चाह नहीं प्रेमी माला में,
बिंध प्यारी को ललचाऊँ .

चाह नहीं सम्राटों के शव पर,
हे हरि डाला जाऊँ.

चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूं भाग्य पर इठलाऊं .

मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फ़ेंक.

मातृभूमि पर शीश चढाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक. ( माखनलाल चतुर्वेदी )

बचपन में यह कविता पढ़ी थी. कविता की हर लफ्ज़ एक अलग भाव के साथ आज भी दिल में हिलकोरें मारती है. सहसा आज फिर सौभाग्यवश यह मेरी नज़रों के सामने अवतरित हुई. दिल खुशियों से बाग़-बाग़ हो गया. खुद को रोक नहीं पाया और इसे पोस्ट करने के लिए ऊँगलियाँ कीबोर्ड पर खुद-बखुद चलने लगी. तो फिर देर किस बात की, 'पुष्प की अभिलाषा' के साथ-साथ इसकी महक से खुद को आनंदित करें..

रविवार, 15 मार्च 2009

बिलखता पाक अवाम

आर्मी और अमेरिका। इस दो 'अ ’ ने पाकिस्तानी अवाम को हर बार नुकसान ही पहुंचाया है। पर अब तीसरे 'अ ’ (दुर्भाग्य से) आसिफ अली जरदारी सब पर भारी पर रहे हैं। कभी 'मिस्टर टेन परसेंट ’ (हर टेंडर में दलाली) के नाम से कुख्यात रहे जरदारी ने बेनजीर की मौत के बाद राष्टï्रपति का पद ग्रहण किया तो आम लोगों के साथ अंतरराष्टï्रीय बिरादरी में भी आशा की किरण दिखाई दी। पर यह सब इतना जल्दी खत्म हो जाएगा, किसी ने सोचा भी नहीं था। पहले नवाज शरीफ से टकराहट और फिर तालिबान के आगे घुटने टेककर जरदारी ने अपनी कमजोरी का ही परिचय दिया।
इस सियासी जंग में पाक अवाम ही सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता के चलते देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल दौर में पहुंच चुकी है। श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमले के बाद अंतरराष्टï्रीय बिरादरी में पाक की जो फजीहत हुई, यह किसी से छुपी नहीं है। यहां तक कि जरदारी को क्रिकेटरों से माफी मांगनी पड़ी। और अब नवाज शरीफ ने नजरबंदी को तोड़ सड़क पर उतरकर विद्रोह की चिंगारी को हवा दे दी है। सरकारी आदेश को न मानकर उन्होंने यह संदेश तो दे ही दिया है कि देश की अदालत और प्रशासन उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है। पूर्व प्रधानमंत्री का यह रूख किसी आनेवाली आशंका की ओर इशारा करता है। नजरबंदी की गिरफ्त में सिर्फ शरीफ बंधु ही नहीं आए, बल्कि पूर्व क्रिकेटर इमरान खान भी इससे बच नहीं सके। पर सरकारी चाबुक का क्या असर पड़ा? हजारों समर्थकों को संबोधित करते हुए नवाज ने साफ कहा कि वे किसी सरकार और अदालत को नहीं मानते। यह खुल्लमखुल्ला विद्रोह आखिर क्यों?
जबसे पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने नवाज बंधुओं को चुनाव लडऩे से अयोग्य ठहराया है, पाकिस्तान में सियासी घटनाक्रम में तेजी से बदलाव आया है। लाहौर और अन्य शहरों में सीधे पुलिस और नवाज समर्थकों के बीच भिड़ंत हो रही है। देश में मीडिया पर बंदिशें लगनी शुरू हो चुकी है। इसलामाबाद में एसएमएस सेवा पर रोक लगा दी गई है। राष्टï्रपति आसिफ अली जरदारी और प्रधानमंत्री गिलानी की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होती दिख रही है। मीडिया की खबरों में कहा गया है कि सेना ने ब्रिटेन और अमेरिका के मशविरे के मुताबिक जरदारी को झुकने या हालात सुधारने के लिए २४ घंटे का अल्टीमेटम दे रखा है।
स्वात घाटी और बलूचिस्तान में सरकार की नाकामी किसी से छिपी नहीं है। तालिबान आतंकियों के सामने घुटने टेककर सरकार ने यह जता दिया है कि सुरक्षा के नाम पर देश किस हद तक बदहाल स्थिति में पहुंच चुका है। पर इस सारे घटनाक्रम में सबसे ज्यादा नुकसान तो पाक अवाम को ही हुआ है। आर्थिक खुशहाली का सपना देखते-देखते उनके बच्चों ने कब बंदूक उठा लिए, किसी को पता ही नहीं चला। और जब आंख खुली तो देश एक बारूद की ढेर पर जा पहुंचा था।

शनिवार, 31 जनवरी 2009

वाह यूकी......, तेरा क्या कहना!

वाह यूकी, तूने तो कमाल कर दिया। ऑस्ट्रेलियन ओपन में जूनियर वर्ग का एकल खिताब जीतकर सचमुच तूने एक नया इतिहास रचा। मशहूर कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण के 'कॉमन मैन ’ के चेहरे पर एक खूबसूरत मुस्कान देने के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं। मेलबर्न के इस नए प्रिंस को हर भारतीय का सलाम। महज १६ साल की उम्र में ग्रैंड स्लैम खिताब पर कब्जा जमाना किसी हैरतअंगेज कारनामा से तो कम नहीं है।
एक बात और कि महिला एकल मुकाबलों में टेनिस सनसनी सानिया दूसरे दौर में ही खामोश हो गई, पर सानिया भूपति के साथ मिक्स्ड मुकाबले के फाइनल में दस्तक देकर अपनी छाप छोडऩे में कामयाब रही। लिएंडर पेस और महेश भूपति भी अपने जोड़ीदारों के साथ आगे बढऩे में सफल रहे। भले ही भूपति-नोल्स की जोड़ी डबल्स फाइनल मुकावला गंवा बैठी, पर यह कारनामा प्रशंसा बटोरने के लिए काफी है। पर सबसे अधिक यूकी की कलात्मक टेनिस शैली ने सभी का मन मोह लिया। और जब चारों ओर से यूकी पर बधाई की वर्षा हो रही है तो इसमें किसी को अचरज करने की बात ही क्या।
आज यूकी की खबर हर वेबसाइट, टेलीविजन और अखबार पर प्रमुखता से जगह पा रही है। पर क्या ये मीडिया के रहनुमा जरा गौर फरमाएंगे कि यही यूकी जब ऑस्ट्रेलियन ओपन में अपना जौहर दिखा रहे थे, तो टेनिस की खबरों में यूकी बस एक-दो लाइन में ही नीचे पड़े रहते थे। बहुत कम लोग जानते होंगे कि भांबरी परिवार टेनिस से गहराई से जुड़ा रहा है। आज भी यूकी की बहनें टेनिस खेल रही है। भले ही सानिया के आगे भांबरी बहनें मीडिया और कॉरपोरेट जगत में उतना एक्सपोज नहीं पा रही है, पर क्या किसी खिलाड़ी की प्रतिभा सिर्फ मीडिया में ही चर्चा से झलकती है? अभी भी हमारे खेल रहनुमाओं को समझने की जरूरत है कि आखिर कब तक हमलोग हजारों 'यूकी ’ को भूलेते रहेंगे। आज जरूरत है कि खो-खो, कबड्डी, ताइक्वांडो, कुश्ती और भारोत्तोलन जैसे उपेक्षित खेलों में 'यूकी ’ को खोजा जाए।

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

’छुक-छुक चलती ट्रेन टू मैरिज ’

मेरे एक मित्र हैं। उम्र ३० की हो चुकी है। जब उनसे कोई उनकी उम्र के बारे में पूछता तो वे लड़कियों की तरह शरमाते हैं। बस वैसे ही जैसे अपनी लाजवंती छूते ही सिकुड़ जाती है। पर वे लाजवंती की तरह रूठते नहीं है, सदा हंसते-मुस्कराते रहते हैं। जिंदादिली उनमें साफ झलकती है और इसलिए वे सभी लोगों के दिल के करीब हैं। पर आजकल महाशय कुछ ज्यादा ही खिले-खिले नजर आते हैं। हो भी क्यों ना! उनकी शादी जो होने वाली है। पर पता नहीं क्यों, भाईसाहब के चेहरे पर शादी का नाम आते ही लज्जा से सिकुड़ी हुई किसी नवयुवती की लालिमा उभर आती है।
उनकी शादी की कहानी किसी पैसेंजर ट्रेन से कम नहीं है। भले ही वे हीरो होंडा स्प्लेंडर प्लस पर सवारी करते हों और नोकिया का अत्याधुनिक मोबाइल रखते हों। पर 'ट्रेन टू मैरिज ’ की रफ्तार पुराने जमाने की खटारा मोटरसाइकिल से कम नहीं है। उनकी यह गाड़ी छुक-छुक करते हुए अभी गंतव्य स्टेशन पर नहीं पहुंची है। 'ट्रेन टू मैरिज ’ अभी भी पटरी पर चल ही रही है। भाई साहब की जुलाई में शादी की तारीख तय हुई। तो अगस्त महीने में वे लड़की देखने पहुंचे। पर पहली ही मुलाकात में वे उन्हें अपना दिल दे बैठे। अब बता रहे हैं कि सितंबर में रिसेप्शन होगा। पर शादी की तारीख अभी भी तय नहीं हुई है।
वैसे उनका विवाह करने का इरादा तो किसी बुलडोजर के इरादे से कम नहीं है। कभी ऐसा भी दौर था जब वे शादी के नाम पर बिदक जाते थे। बताते थे कि अरे भाई जो कुंआरे रहने में मजा है वो भला शादी के करने पर कहां। मतलब साफ था कि शादी करने पर तो सजा ही मिलती है और कुंआरों की मौजा-मौजा ही होती है। पर अब तो पूछिए ही मत!
रोजाना फोन पर वे घंटों बातें होती है उनकी। जुंबा पर उनका नाम आते ही वे थोड़ा शरमा जाते हैं। किसका नाम अब ये हमसे पूछिए मत। चेहरे पर थोड़ा सा मुस्कान लाएंगे और कहेंगे अरे भाई अब तो मैं भी कुंआरों की लिस्ट से अपना नाम कटवा रहा हूं। बस, इस मौके को भुनाने तो दो। तो भला मैं क्यों आपत्ति करूंगा। शादी उनकी होगी तो मुझे ढेर सारी मिठाई खाने को तो मिलेगी ही। वैसे मैं मिठाई का हूं बड़ा शौकीन। उनकी शादी में मैं जमकर मिठाई खाऊंगा। पर यह 2वाहिश सिर्फ मेरी ही नहीं है। बल्कि हमारे अन्य साथियों की भी है। खासकर मेरे उस राजस्थानी भैया की बहुत है। अब तो हमारी मित्र मंडली को शादी की तारीख का इंतजार है।