गुरुवार, 13 अगस्त 2009

किस बात की आजादी?

आज हम आजाद हैं! हर साल की तरह इस बार भी हमारे हाथ में तिरंगा होगा और मंच पर भाषण देते जनता के (सच्चे) प्रतिनिधि। टीवी-रेडियो पर देशभक्ति के गाने बजेंगे और फिर अचानक एक शून्य...। काल के पहिए यथावत ही चलते रहेंगे और तब तक स्वतंत्र भारत एक और बसंत पार कर चुका होगा। पर क्या सिर्फ इतना कर देने से एक भारतीय का फर्ज खत्म हो जाता है?

इन सबके बीच एक सवाल सुलगता है कि आखिर कब तक अंग्रेजों से मिली गुलामी को खत्म करने का जश्न मनाते रहेंगे? सिर्फ पंद्रह अगस्त को झंडा फहराकर एक भारतीय का फर्ज निभाना ही आजादी है? या फिर शहरों की चकाचौंध में अपना अस्तित्व तलाशता एक ग्रामीण युवा की हसरत? क्या यह शारीरिक सुख की आजादी है या फिर मानसिक परतंत्रता की बेड़ी...। क्या यह आजादी सच में इतनी प्यारी है कि हम या आप किसी बात पर सहसा ही मुस्कुरा सके? क्या यही एक भारतीय की नीयति है? और शायद हां और ना के बीच झूलता एक अनसुलझा सवाल भी। अरमान और आशा के साथ उस सपने का क्या होगा, जिसके कल्पित अनुभव हमारे नीति-निर्धारकों ने देखे होंगे।

कड़वा सच तो यह है कि आज का दमकता भारत शहरों में बसता है। गांवों और वहां बसे लोगों की सुध किसी को नहीं है। हर बात पर प्रशासन और सरकार पर भड़ास निकालकर क्या हम अपनी दायित्व से मुंह नहीं छिपा रहे? सरकार की हर योजना और नीतियां शहर के इर्द-गिर्द घूमती है। शहर के लोग यदि खुश हैं तो भारत भी खुश (शायद मेरे इस विचार से कई लोग असहमत हो सकते हैं)! पर, आज हमारे 'बापू का गांव ’ किसी को नहीं दिखता। कहने को तो 'नरेगा ’ और ना जाने कैसी-कैसी योजनाएं (जो सिर्फ नेताओं को याद दिलाती है) चलाई जा रही है, पर यह किस तरह से कार्यान्वित हो रही है कोई नहीं जानना चाहता।

गांव की गरीबी कितनी भयावह है, किसी को कहने की जरूरत नहीं है। आज जब देश के 150 से ज्यादा जिले (सरकारी तौर पर) सूखे घोषित किए जा चुके हैं, तो जीएमओ (गु्रप ऑफ मिनिस्टर) सूखे से बचने का उपाय ढूंढ रहा है। एक किसान के माथे पर चिंताएं की लकीर खींच चुकी है, क्या कोई इसे मिटाने को सोचेगा। खेत में फसल नहीं लगी, और आगे.....? पसीने की आखिरी बूंद तो खेत में डाल दी और अब....?

कहीं न कहीं इस हालात के लिए हम सभी दोषी हैं। आज यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमने अपनों के लिए कितना क्या, बल्कि इससे हमारे आसपास के लोग कितने लाभान्वित हुए? गांव छूटा, तो शहर आ गए। कड़ी मशक्कत के बाद मंजिल मिली तो एक फ्लैट लेकर किसी अपार्टमेंट में खुद को कैद कर लिया। और फिर भूल गए जन्मभूमि को.....। यह किस्सा हर एक नौजवान के साथ जुड़ा है जो आज शहर की चकाचौंध में अपना अस्तित्व तलाशने में जुटा है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि साल में कम से कम एक बार ही सही हर नौजवान अपनी मिट्टी का कर्ज अदा करने गांव-कस्बा की ओर रुख करें। शायद इससे सिर्फ एक बार ही सही किसी का आंसू पोंछने का हमें मौका मिले।

2 टिप्‍पणियां:

amlendu asthana ने कहा…

आपका ब्लॉग अच्छा लगा। आपको जनमाष्टमी और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।

shantanu ने कहा…

बढ़िया लेख.