सोमवार, 13 जुलाई 2009

मेरा क्या कसूर?

यह कहानी है हमारे-आपके जैसे आम युवक की। खेत-खलिहान में खेलते-कूदते बड़ा हुआ। हमारे पास खेत बस इतनी थी कि बमुश्किल दो वक्त का खाना मिल पाता। मेरी पढ़ाई गांव में हुई, तो स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी में कमजोर रहा। और एक दिन गांव की चौपाल से निकलकर शहर में कदम रखा।

कॉलेज में एडमिशन लेते ही नौकरी के बारे में सोचने लगा। ट्यूशन पढ़ाकर जैसे-तैसे पढ़ाई जारी रखी। और जब नौकरी पाने की जद्दोजहद शुरू हुई तो न जाने कब इंजीनीयिर और डॉक्टर बनने का सपना खत्म हो चुका था। इसलिए मैंने रेलवे और एसएससी की परीक्षाओं के लिए अप्लाई करना शुरू किया।

.....एक दिन मैंने देखा कि हमारे सपने को राजनीति के मेज पर कत्ल किया जा रहा है। लालदुर्ग को तहस-नहस करने के लिए जो पासा फेंका जा रहा था,उसके मोहरे हम थे। हमारे सपने टूट रहे थे और मेज पर यस मैडम-2 की तालियां बज रही थी। मैं तो दीदी के इस फैसले पर अवाक था। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था और मैं.......।

मैं मानता हूं कि ममता दीदी ने खुद के बदौलत राजनीति में जो मुकाम बनाया, सराहनीय है। पर यदि लोगों का गला काटकर वोट की राजनीति किया जाए तो यह तनिक भी सहनीय नहीं है। केंद्रीय रेल मंत्री के ताजा प्रस्ताव को मंजूरी मिली तो लाखों हिंदीभाषी भारतीयों के सपने चकनाचूर हो जाएंगे। एक छात्र जो करीब 12-14 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद रेलवे के गैंगमैन और क्लर्क की नौकरी पाने का ख्वाब देखता है, उसके हसरत पर तो ग्रहण लगना स्वाभाविक ही है। प्रस्ताव के मुताबिक अब रेलवे भर्ती बोर्ड परीक्षा के प्रश्नपत्र सिर्फ दो भाषाओं अंग्रेजी और स्थानीय भाषा में होंगे। यानी उत्तर भारतीय छात्रों को इन नौकरियों से दूर करने के लिए पहला कदम। दूसरा कदम यह है कि स्थानीय लोगों को 50 फीसदी सीटें आरक्षित मिले। आखिर क्षेत्रवाद की राजनीति में इन मेहनती और कर्मठ छात्रों को क्या गलती?

इन छात्रों की हसरत किस तरह सपनें बुनती है, जरा दीदी को पटना, इलाहाबाद, इंदौर या जयपुर के लॉज में रहकर पढ़ाई कर रहे छात्रों से पूछना होगा। दिन-रात एक कर देने वाले ये युवक सिर्फ एक नौकरी पाने के लिए सप्ताह में चार दिन ट्रेन, बस और ऑटोरिक्शा में बीता देते हैं। न्यू जलपाईगुड़ी, कोलकाता, अहमदाबाद, दिल्ली, मुंबई, कटक, तिरुवनंतपुरम जैसे शहरों में रेलवे प्लेटफॉर्म पर रात गुजारने वाले ये छात्र सभी मुश्किलों को झेलते हुए परीक्षा हॉल में प्रवेश करते हैं। उस समय थकान और भूख के बीच भी सपना पूरा करने की कशश बाकी रहती है। यात्रा के दौरान उन्हें टीटीई की फजीहत और रेलवे पुलिस का रौब भी झेलना पड़ता है, जो अलग बात है। आखिर इन छात्रों का बस इतना ही कसूर है कि उन्होंने 'बीमारू ’ प्रदेश में जन्म लिया और मेहनत के सहारे नौकरी पाने की तमन्ना की। और आज जब उनके इस सपने को भी छीना जा रहा है तो हर कोई चुप है। आखिर क्यों?

5 टिप्‍पणियां:

Nitish Raj ने कहा…

मुझे लगता है कि अंग्रेजी के साथ एक प्रदेश भाषा और हिंदी को जरूरी है, हमारा राष्ट्र हिंदुस्तान है कैसा कोई काट सकता है हमसे हमारा हिंद, चाहे कोई बंगाली हो या बिहारी या फिर मराठी पर पहले वो हिंदुस्तानी है।

Mithilesh dubey ने कहा…

bahut khub bhai bas aise hee likhte rahiye. badhai

shantanu ने कहा…

लेख काफी अच्छा है. पर तनिक विचार कीजिये यदि गुजरात के युवकों को उनके जोन में नौकरी ही न मिले तो वे उस इलाके के ऊपर ही नाराज होंगे जहाँ के बच्चो ने उनकी नौकरी छीनी है. विद्वेष बढ़ता जायेगा. मेरे विचार से ममता का प्रस्ताव ठीक है. फिर ५० प्रतिशत बाहरी लोगों के लिए काफी होता है.

amlendu asthana ने कहा…

Ram shankar zee mai Apka blog pad nahi pa raha hoon per sirshak achchha laga. waise mai paraya shabd edit ker rahahoon kyonki apne to apne hoote hain. Humsub Hinduatani.
apka blog pad shakunga to post per bhi tippni karunga
thanks

Aakash Polra ने कहा…

Outside India, we talk about "Racism" - racism between different races (likes Indians and Europeans, for example!).
If in India (unite india) itself, if we start racism like this - calling Indians Gujarati and Marathi, Bengali and Punjabi, what is the point of freedom and being Indian?

It is like cutting the roots of the Indian culture which says everyone is equal.