रविवार, 21 दिसंबर 2008

कोई मेरी भी शादी करा दो......

आजकल कुंआरों की जान आफत में है। लड़कियों की तादाद घटती जा रही है और उनकी मुश्किलें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। सरकारी आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो देश में एक हजार की आबादी पर मात्र ९२७ महिलाएं हैं। मतलब अभी भी ७३ अंकों का भारी फासला है। सैकड़ा में यह तुलना तो कम लगता है, पर जब इसे देश की एक अरब की आबादी से तुलना करें तो चिंता की लकीरें बढ़ जाती है। पर यहां भी खुश होने की कोई वजह नहीं दिखती। इन ७३ अंकों में से तो कई हमारी-आपकी दादी-नानी उम्र की होंगी। तो कई मामी, चाची, फूआ के उम्र की। कई ने तो अभी यौवन की दहलीज पर भी कदम नहीं रखा होगा। उस हालात में हमारे कुंआरें भाई-दोस्त मन से रोते हुए चेहरे पर मुस्कान नहीं बिखेरेंगे तो भला क्या करें। पर मन रोता है तो दिल भी खूब रोता है। मेरे एक प्रिय साथी भी कुछ ऐसे ही हालात से गुजर रहे हैं।

मेरे साथी राजस्थान के रहनेवाले हैं। जीवन के २७ बसंत देख चुके हैं। पर शादी के नाम लेते ही अगल-बगल झांकने लगते हैं। ऐसी बात भी नहीं है कि वे शादी करना नहीं चाहते या फिर उन्हें इसकी कोई इच्छा नहीं है। खाते-पीते घर से ताल्लुकात रखते हैं और कमाऊ भी हैं। इतनी सी उम्र में थोड़ी सी पेट निकल आया है। उम्रदराज दिखने के लिए उन्होंने अब मूछें भी रखनी शुरू कर दी है। पर बेचारे की अभी तक शादी नहीं हो पाई है। वो शादी भी करना चाहते हैं, पर करें तो आखिर करें क्या? उनसे बड़े एक भाई हैं और एक छोटी बहन। पर दोनों की शादी जो नहीं हुई है अब तक। बहन की शादी तो तय भी हो गई है, पर बड़े भाई की कुंडलियां कई बार मिलते-मिलते रह जाती है। हर बार जब भी मैं उनसे इस मुद्दे पर चर्चा करता हूं तो बताते हैं कि अबकी बार भाई की शादी तो कर ही डालूंगा। और इसके बाद फिर अपनी तो बल्ले-बल्ले.....। पर ब्रह्मा की लकीरों को भला कोई पढ़ पाया है क्या? पुष्कर मेले में उन्होंने कई बार दक्षिणा देकर कुंडलियां पढ़वाने की कोशिश की, पर शायद अभी उन्हें कुछ साल इस खुशी से मरहूम रहना पड़ेगा।

यह कहानी किसी एक श2स की नहीं है, बल्कि हमारे देश में हजारों ऐसे नौजवान हैं जो किसी दुल्हन की बाट जोह रहे हैं। विशेषकर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में यह समस्या विकराल बन चुकी है। इस समस्या का निदान तो निकालना बहुत जरूरी है। समाज विश्लेषकों की राय मानें तो इसका हल हमारी मानसिकता को लेकर है। यदि हम मन से बेटे-बेटी का विभेद हटा लें तो यह मुश्किलें खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी। इसलिए प्रिय देशवासियों, मेरे दोस्त पर जरा रहम खाओ और उनके लिए ही अपने परिवार व समाज से बेटे-बेटियों का विभेद खत्म करने में जुट जाओ।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

'द वाल ’ में दरार नहीं

मोहाली टेस्ट में शतकीय पारी के बाद भले ही राहुल द्रविड़ ने सहजता से बल्ले से ड्रेसिंग रूम के साथियों और दर्शकों का अभिवादन किया हो। पर उनकी यह शतकीय पारी उनके लिए कितनी अहमियत रखता है, उनके अलावा इससे ज्यादा कोई भी नहीं जानता। द्रविड़ आरंभ से ही भारतीय क्रिकेट टीम के धुरी रहे हैं। अजहरुद्दीन की कप्तानी में लॉड्र्स के मैदान में उन्होंने अपने क्रिकेट कैरियर का शुरुआत किया। और तब से वे अन्य 'खिलाडिय़ों ’ के अपेक्षा टीम के लिए खेलते रहे। इसलिए उन्हें कभी 'टीम मैन ’ का खिताब मिला तो कभी 'द वाल ’ का।

द्रविड़ ने सदा अपनी काबिलियत और प्रदर्शन के बूते टीम को संकट से उबारा। कुछ खिलाडिय़ों की एक-दो पारियां खास मानी जाती है। पर यदि द्रविड़ के कैरियर पर निगाहें डालें तो यह कहना मुश्किल होता है कि उनकी कौन सी पारी सर्वश्रेष्ठï है। लक्ष्मण के साथ ईडेन गार्डन में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेली गई १८० रनों की पारी। या फिर पाकिस्तान दौरे में २७० रनों की पारी खेलकर एक नई ऊंचाई को हासिल करना। एडिलेड में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ पहली पारी में दोहरा शतक और दूसरी पारी में नाबाद पचासा ने टीम इंडिया को जीत का स्वाद चखाया था। वेस्टइंडीज दौरे में जहां सभी बल्लेबाज दहाई का आंकड़ा पाने को तरस रहे थे, वहीं द्रविड़ ने अकेले मैदान पर डटकर गेंदबाजों का सामना किया। द्रविड़ के खाते में कई शतकीय पारी और रिकॉर्ड दर्ज हैं। वे एक ऐसे अनमोल खिलाड़ी रहे हैं, जिन्होंने टीम के लिए कप्तानी, विकेटकीपिंग, बॉलिंग और बल्लेबाजी की। और फील्डिंग में तो उनको सदा महारत हासिल रही। वे एक ऐसे कप्तान रहे, जिन्होंने इंग्लैंड के सफल दौरे के बाद कप्तानी छोडऩे की घोषणा की। क्या किसी कप्तानी में इतना साहस होगा कि वे सफलता के मुकाम पर पहुंचकर टीम का कमान किसी और को सौंप दे।

और जब धोनी के नेतृत्व में टीम घरेलू मैदान पर शानदार प्रदर्शन कर रही है। तो सभी क्रिकेट विश्लेषकों की निगाहें विदेशी दौरे पर होगी। और यह बात हर कोई जानता है कि विदेशी दौरे पर 'विश्वसनीयता की छाप ’ द्रविड़ की शर्ट पर ही लग सकती है।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

जरा याद उन्हें भी कर लो...

ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी।
ये वो लफ्ज हैं जिन्हें सुनकर हर भारतीय की आंखें नम हो जाती है। स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने इस गीत को दर्दभरी आवाज दी तो हमारे प्रिय चाचा नेहरू भी अपने आंसू नहीं रोक पाए थे। कुछ ऐसी ही ताकत थी जन-जन के कवि प्रदीप की। उनकी लेखन शक्ति ने हर हिंदुस्तानी के दिल में जोश-उमंग भर दिया। ११ दिसंबर २००८ को प्रदीप की १०वीं पुण्यतिथि थी। इसी अवसर पर हम आम भारतीय इस ओजस्वी कवि का नमन करते हैं।
कवि प्रदीप का जन्म १९१५ में मध्य प्रदेश में हुआ था। उनका असली नाम था रामचंद्र द्विवेदी। बचपन में ही उनमें लेखन और कविता में गहरी रुचि थी। बाद में उन्होंने मायानगरी मुंबई में किस्मत आजमाने के लिए दस्तक दी। शुरुआती संघर्षों के बाद उनकी किस्मत खुली १९४३ में आई फिल्म 'किस्मत ’ से। 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो॥ दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदोस्तान हमारा है॥। ’ यह गाना उस दौर में बहुत ही लोकप्रिय हुआ और कवि प्रदीप अपना सिक्का जमाने में कामयाब रहे।
कहते हैं कि अंग्रेज इस गीत से इस कदर परेशान हो गए कि उन्होंने कवि प्रदीप के खिलाफ वारंट निकाल दिया था। पर गानों की लोकप्रियता का कहना ही क्या। दर्शकों की फरमाइश पर सिनेमा हॉल में फिल्म की रील रिवांइड कराकर फिर से इसे सुनाया जाता था। १९५४ में 'जागृति ’ के गानों ने धूम मचा दी। इस फिल्म के गाने सिर्फ स्वदेश में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान में भी काफी लोकप्रिय हुए। पाकिस्तान में 'जागृति ’ की रीमेक 'बेदारी ’ बनी तो, इसमें 'देश ’ की जगह 'मुल्क ’ कर दिया गया। और यह गीत बन गया.. 'हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के ’।
कुछ इसी तरह 'दे दी हमें आजादी ... ’ का पाक संस्करण कुछ यूं आया। 'यूं दी हमें आजादी कि दुनिया हुई हैरान, ऐ कायदे आजम तेरा एहसान है एहसान ’। 'बेदारी ’ फिल्म का एक और गाना बन गया 'आओ बच्चे सैर कराएं तुमको पाकिस्तान की, जिसकी खातिर हमने दी कुर्बानी लाखों जान की ’।सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए कवि प्रदीप को १९९८ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। सच में कवि प्रदीप आज हमारे बीच में नहीं हैं, पर प्रदीप की लेखन शक्ति की लौ आज भी हर भारतीय के दिल में प्रज्वलित है।