गुरुवार, 24 जुलाई 2008

संगीत का जादू....

सात सुरों का जादू यानी संगीत हमारी आत्मा है। हम जब भी उदास होते हैं तो संगीत की बस एक मधुर धुन हमें ग़मों से हजारों मील दूर ले जाती है जहाँ हमारी रूह एक अलग शख्सियत में ढल जाती है। जहाँ हमारा कोई अपना अस्तित्व नहीं होता है और हम बस खुदा के बन्दे रहते हैं। उस नेकनीयती से हमारा दिल पाक-साफ होता है और प्यारी सी मुस्कान हमें अपनों के पास ले जाती है.
पर आज मैं संगीत का एक अलग अहसास सुनाने जा रहा हूँ जिसने इस जादू के प्रति मेरा सारा ख्याल ही बदल दिया। हर बार की तरह गरमी की छुट्टियों में एक बार अपने घर गया था। बचपन से ही मुझे गाना सुनने का बहुत शौक रहा है और मैंने इसे सदा जिन्दा रखने की कोशिश की है। मेरे दालान में दो बैल बंधे हुए थे.
अचानक मैंने देखा कि एक बैल काफी उग्र हो गया और उसने दूसरे बैल को मारना शुरू कर दिया। जब मेरे चाचा उस बैल को बचाने पहुंचे तो उस बैल ने उनपर भी झपट्टा मारा। मेरे चाचा सहम कर पीछे हट गए। पता नहीं क्यों मेरे दिमाग में एक ख्याल आया। मैंने धीरे से रेडियो को बैल के समीप ले गया। उस समय रेडियो में कोई पुराना गाना बज रहा था. बस, सच पूछिये पता नहीं कैसे बैल का गुस्सा छू-मंतर हो गया. मैंने धीरे से उसके गले पर हाथ फेरा. और अब बैल पहले की ही तरह नाद में पुआल चबा रहा था.
एक नन्हें से बच्चे की मुस्कान का हर कोई कायल होता है. कहतें हैं कि दो-तीन साल का बच्चा प्रकृति के मुताबिक हँसता है और प्रकृति के अनुसार रोता है. उसकी निश्छल हँसी हमें अपने बचपन में ले जाती है जहाँ हमने भी कभी मां का पल्लू पकरकर कभी रोया था. कभी जानबूझकर अपने बहनों के साथ झगरा भी किया था ताकि बहन के हिस्से का थोरा सा प्यार मिले. और वह प्यार हमें मिलता था मां की लोरी में. हर कोई उस लोरी पर अपने अधिकार जमाना चाहता था. आख़िर कोई क्यों ना करे. तो ये था लोरी के संगीत का जादू. जिस किसी ने लोक संगीत का स्वाद चखा हो वही उसका सुगंध बता सकता है. हर दिल अजीज और प्यारा सा अहसास है ये.

सोमवार, 14 जुलाई 2008

छूआछूत का नया रोग

छूआछूत का रोग सबसे खतरनाक रोग माना जाता है। पर यदि इससे हमारी कोई हित सधता हो तो भला हम भारतीय इससे पीछे नहीं रहते। स्वहित की बात हो और हम इसे अपने लिए नहीं अपनाएं, ये तो हो ही नहीं सकता। वैसे तो हमारे देश में छूआछूत की कई महामारियां मौजूद है. पर हाल के दिनों में जगह झपटने की गंभीर महामारी ने सभी को पीछे छोर दिया है.
ट्रेन हो या बस सीट को लेकर अपने यहाँ हमेशा से नोकझोंक चलती रही है। चाहे आप कितने भद्र पुरूष हों या फ़िर नामी बदमाश। ट्रेन और अन्य जगह आपको अपने सीट के लिए उग्र होना ही परता है. यदि आप सीधे-साधे हैं तो फिर आप अपने सीट से तो हाथ धोकर ही बैठ जाइये. ट्रेन में तो यात्रा करते वक्त रिज़र्व सीट के लिए भी जद्दोजहद करनी परती है. कई बार तो रेलवे टीटी तक फरियाद पहुँचने पर आग्रह अनसुनी हो जाती है.पर इस बार तो हद ही हो गयी.
अब तो ऑफिस में भी जगह के लिए मारामारी शुरू हो गयी. हमारे भाई साहब एक नामी मीडिया ग्रुप में काम करते हैं. वे जिस केबिन में बैठते हैं, उसके ठीक सामने दो लोग अपनी सीट खाली कर दूसरी जगह शिफ्ट कर गए। उनलोगों के खाली किए हुए बमुश्किल कुछ ही मिनट बीते होंगे की हमारे एक सहकर्मी की उसपर नज़र पर गयी।और फिर बस होना क्या था।
ये तीव्र सूचना हमारे बॉस तक पहुँच गयी। और बॉस भी तो मानो इसे लपकने के लिए तैयार थे। उन्होंने हमलोगों को भरोसा दिलाया कि हमलोग चिंता नहीं करें, ये खास जगह हमारी ही होगी। कोई नहीं जानता कि इस चमत्कार को मैं कब हकीक़त में बदल दूंगा. बॉस के इस दिलासे से तो हमलोग फूलकर कुप्पा हो गए. सबके मन में लड्डू फूटने लगे और खुशी का तो ठिकाना ही क्या.
पर ये रोग हमारे यहाँ तक ठीक रहे तो सही, पर जब दुसरे डिपार्टमेन्ट के लोग भी इसपर नज़र गराने लगे तो मानो हलचल मच जाएगी. पर खुदा का शुक्र है की अभी तक किसी की भी इसपर नज़र नहीं परी है और वो जगह है. हाँ तो खुदा के बन्दों खुशी मनाओ कि हम भी इस छूआछूत के शिकार हो गएँ हैं....

शनिवार, 12 जुलाई 2008

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...

गांव की दुनिया भी बहुत ही निराली होती है। चारों ओर हरे-भरे खेत और चहकती पंछियों की उन्मुक्त उरान से मन बाग़-बाग़ हो जाता है। मानो ईश्वर ने अपनी सारी कलाबाजी और गुण उसमें समेट दिया हो. जब भी शहर की भागदौर से मन टूटता है तो मन बरबस ही गांव की और खींचा चला जाता है.
आंखों के सामने डरवाजे पर बंधे बैल और उसके गले में बंधी घंटियों की आवाज मुझे अपनी और खींचती है। घंटियों की आवाज में कुछ ऐसा आकर्षण होता है जो आपको अपने पास बुलाती है। उस पल कुछ कहना चाहती है आपसे. सांसों में हर पल उसकी जम्हाई और कभी-कभी सर हिलाकर गुस्साना कुछ और ही कहता है. दरवाजे पर भूसी का ढेर और कभी-कभी बैल द्वारा रस्सी तोड़कर भूसी और अन्य चीजों पर झपटना एक अलग ही आनंद देता है. शायद उसकी ये हरकत हमें अपनी बचपन की याद दिलाती है. कुछ वो बचपन जिसे हमलोगों ने पैसे और नौकरी के चक्कर में न जाने कहाँ कैद कर रखा है.
कहावत है की हर इन्सान के पास एक प्यारा और नाजुक सा बच्चे वाला दिल होता है. पर इन्सान उम्र बढने के साथ-साथ उस दिल को भी भूल जाता है. हममें से हर कोई ये मानता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए. पर कुछ पाने की तीव्र लालसा हमें उस आनंद से दूर ले जाती है, जो हमारा और सिर्फ़ हमारा है. बचपन में रोते भी हैं और हँसते भी हैं. पर उस आँसू में भी यादों का हमसफ़र छुपा रहता है. जो प्यार का मीठा अहसास कराता है. पर जवानी में तो रोने पर भी आँसू नहीं निकलते हैं. हाँ गुस्सा जरुर आता है. और उस गुस्से में हम किसी की जान लेने से भी नहीं गुरेज करते. आख़िर ऐसा क्यों होता है. जब हर शख्स को इंसान ने ख़ूबसूरत दिल और मनमोहक जिस्म दिया है तो ये वैर क्यों? आख़िर क्यों पल भर में हम ईश्वर की खूबसूरत दुनिया को बरबाद करने पर तूल जाते हैं. यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब हर किसी को देना है.

जब आए मां की याद....

मां बहुत ही प्यारी और अच्छी होती है। मन के अन्दर ढेर सारी ममता को समेटे जब वो हमें अपने हाथों से खिलाती है, तो पूछो ही मत. जिंदगी की सारी खुशियाँ एक पल में मुट्ठी में बंद हो जाती है. सच में मां तो बस मां होती है और इसके आगे लफ्ज भी खामोश हो जाते हैं. शायद किसी ने सच कहा है कि ईश्वर हर प्राणी की देखभाल नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने मां को बनाया.
पता नहीं आज क्यों मां की बहुत याद आ रही है। घर से १२०० किलोमीटर दूर रहना बरी बात नहीं है। पर उससे भी मुश्किल है मां से दूर रहना। जब कभी मां की याद आती है तो उनसे फ़ोन पर बातें जरुर हो जाती है. पर वो प्यार नसीब नहीं हो पाता है, जो उनके हाथ के कोमल स्पर्श से हासिल होता है. जिंदगी यूँ तो मैनें बहुत कुछ खोया और उसके बदले पाया भी बहुत. पर घर से दूर रहकर सब कुछ पाकर भी कुछ खाली-खाली सा लगता है. ऐसा लगता है जमीं के नीचे मैंने आशियाना तो बना लिया पर देवी की प्रतिमा नहीं लगा पाया, जिनकी मैं आराधना कर सकूँ.
करियर और नौकरी को लेकर जिन्दगी इस कदर उलझ गई है की सब कुछ उदास-उदास सा लगता है. या यूँ कहे आँख में आंसू भी गाल भर ढलकर आगे नहीं जाते.इस बेबसी मैंने आंसूं से पूछा आख़िर ऐसा क्यूँ. उसने दर्द भरे शब्दों में जवाब दिया कि आप भी तो दर्द को अपने सीने में दफना कर हर ख्वाहिश को कत्ल कर देते हो. सच में ऐसा क्यूँ होता है कि एक सपना को पाने के लिए आदमी जी-जान से कोशिश करता और जब वह इसे हासिल हो जाती. पर बाद में वही हसीं सपना इसकी कीमत वसूलती है. ऐसा है तो हर इंसान के साथ होता है. मन को समझाने के लिए हम बस आँसू पीकर रह जाते हैं. है न सच.

रविवार, 6 जुलाई 2008

नॉएडा में कितने सेक्टर ?

नॉएडा में यूँ तो कई सेक्टर हैं. देल्ली के गोलचक्कर से सेक्टर एक-दो की शुरुआत होती है और फिर ये न जाने कहाँ कहाँ से दोहरे और तीहरे अंकों में पहुँच जाती है. इसमें कितने सेक्टर हैं ये तो मुझे नहीं मालूम, पर एक बार मैं सेक्टर १४१ तक जरुर घूम आया हूँ. सेक्टर की बात चली है तो मैं आपको एक दिलचस्प बात बताता हूँ. एक बार मेरे एक मित्र नवभारत टाईम्स में नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए. उस समय नॉएडा और आसपास नवभारत का नया एडिशन लॉन्च होने वाला था. वैसे तो मेरे दोस्त से कई सारे प्रश्न पूछे गए, पर एक प्रश्न पर जाकर वे अटक गए. उनसे पूछा गया की नॉएडा में कितने सेक्टर हैं और इसका जवाब देने में असफल रहे और अंतत उनका सेलेक्शन नहीं हो पाया.हाँ बात चल रही थी नॉएडा के पोश इलाके. मसलन सेक्टर १२,१४,१५,५५,५६,६२ के अलावा के कई सारे ऐसे सेक्टर हैं जहाँ मोटी पगार में काम करने वाले लोग काम करते हैं. वे लोग अपार्टमेन्ट में रहतें हैं और पोश इलाके की सुख सुविधा का उपयोग करते हैं. उनकी दुनिया अलग सी होती है. जहाँ उनके क्लास के ही लोग रह सकते हैं. उनलोगों ने ख़ुद को एलिट क्लास में मान रखा है, पर ऊचे मीडियम क्लास के तमगे से भी वो खुश ही रहते हैं. पर हर दीपक के नीचे जैसा अँधेरा होता है,वैसा ही हर पोश इलाके के अनधिकृत बस्तियां भी है. यहाँ आप दीहारी और ठेले लगाने वाले आदमी मिल जाएँगे. ये लोग ७००-१००० रुपये में एक रूम लेकर किराये पर ६-७ लोगों के ग्रुप में रहते हैं. उनकी भी अपनी एक अलग दुनिया होती है. पर और लोगों की तरह उन्हें किसी स्पेशल क्लास में शामिल होने का शौक नहीं है. मसलन sector-१५ के साथ अशोक नगर जैसी बस्तियां आपको मिल जाएगी. तो सेक्टर १२-२२ के पास रागुनाथापुर जैसा आदिम गांव मिल जाएँगे. बात यहीं आकर खत्म नहीं होती है सेक्टर ५५-५६ और ६२ के पास ममूरा जैसा इलाका आपको अपने गांव की याद दिलाता है. ऐसे बात भी नहीं है की यहाँ सिर्फ़ निचले क्लास के लोग ही रहते हो. अब तो मोटी पगार पाने वाले लोग भी वहां रहने लगें हैं. सीपी और नेहरू प्लेस जैसे मार्केट के स्थान पर यहाँ हर सप्ताह एक हाट लगता है, जहाँ आप अपने जेब की मुताबिक हर कुछ खरीद सकते हैं. बस सामान की क्वालिटी मत देखिये. ये इलाके कहने को तो अनधिकृत और गांव कहलाते हैं, पर ये किसी सेक्टर से अपने आपको कम नहीं समझते हैं. यहाँ रहने वाले लोग भी ख़ुद को सेक्टर का निवासी बतातें हैं. तो अब तो आप बता ही दीजिये की नॉएडा में कितने सेक्टर हैं.