शनिवार, 4 अप्रैल 2009

''पुष्प की अभिलाषा''

चाह नहीं मैं सुरबाला के,
गहनों में गूंथा जाऊँ.

चाह नहीं प्रेमी माला में,
बिंध प्यारी को ललचाऊँ .

चाह नहीं सम्राटों के शव पर,
हे हरि डाला जाऊँ.

चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूं भाग्य पर इठलाऊं .

मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फ़ेंक.

मातृभूमि पर शीश चढाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक. ( माखनलाल चतुर्वेदी )

बचपन में यह कविता पढ़ी थी. कविता की हर लफ्ज़ एक अलग भाव के साथ आज भी दिल में हिलकोरें मारती है. सहसा आज फिर सौभाग्यवश यह मेरी नज़रों के सामने अवतरित हुई. दिल खुशियों से बाग़-बाग़ हो गया. खुद को रोक नहीं पाया और इसे पोस्ट करने के लिए ऊँगलियाँ कीबोर्ड पर खुद-बखुद चलने लगी. तो फिर देर किस बात की, 'पुष्प की अभिलाषा' के साथ-साथ इसकी महक से खुद को आनंदित करें..

1 टिप्पणी:

समयचक्र ने कहा…

मातृभूमि पर शीश चढाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति . धन्यवाद.