रविवार, 8 नवंबर 2009

सिर्फ क्रिकेट पर ही हायतौबा क्यों?

एक मैच में हार और निराशा की बौछार। यही होता है भारत के क्रिकेट प्रशंसकों के साथ। हर क्रिकेट मैच के साथ वह टीवी से ऐसे चिपक जाता है मानो फेविकॉल का प्रचार कर रहा हो। हार-जीत तो खेल का शाश्वत नियम है, पर वह यह नहीं जानना चाहता। सिर्फ एक हार हमारे नायक को खलनायक का पोशाक पहनाने में तनिक भी देर नहीं करती।

गुवाहाटी में हार के साथ ही भारत ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सात मैचों की सीरीज 4-2 से गंवा दी। तेंदुलकर ने हैदराबाद में 175 रनों की बेमिसाल पारी खेली। फिर भी भारत हार गया। सचिन को बधाई देने के बदले कुछ बंधुओं ने उस महान खिलाड़ी के माथे ही इस हार का दोष मढ़ दिया। यह जानते हुए भी कि आखिर अंत तक कंगारूओं ने हार नहीं मानकर इस जीत को हासिल किया। क्या यही पारी ऑस्ट्रेलिया का कोई और खिलाड़ी खेलता और इतना नजदीक जाकर आउट होता तो क्या भारतीय टीम मैच जीतने की आशा जीवंत रख पाती?

और फिर देश में क्रिकेट के अलावा भी तो कई खेल खेले जाते हैं। इसमें हार-जीत मिलने पर तो इतना बहस नहीं होता। यदि खेल को खिलाड़ी और दर्शक की भावना से ही देखें और समझे तो हमलोंगों को हायतौबा मचाने की जरूरत नहीं होगी। काश! ऐसा हर खेल प्रशंसक समझ पाता।

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

mai to bas yahi kahunga ki cricket k mamle me indian andhe ho gaye hai jinhe sachhai se tanik v matlab nhi unhe bas kisi v haal me india ko jeette hue dekhna hai chahe saamne waali team achha khele ya bura