आपसी खींचतान और गुटबाजी भाजपा को कहां ले जाएगी, कोई नहीं जानता? पहले जसवंत सिंह और अब यशवंत सिन्हा....। यह आंधी तो अभी बस शुरू हुई है, पता नहीं कब किसको उड़ा ले जाए। कमल पताका को लिए ये नेता उसी अनुशासन और समर्पण की बात कर रहे हैं, जिसे उन्होंने बार-बार तोड़ा है। इससे पार्टी की दीवार कमजोर हुई और आम जनता से भी दंडित हुए।
इसका आगाज तो पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू हो गया था। भाजपा के अहम रणनीतिकार अरूण जेटली ने इसे हवा दी। और अब बाकी के नेता इसमें घी डाल रहे हैं। यह एक ऐसा आग है जिससे सबसे अधिक नुकसान पार्टी को ही होगा। एक समय अनुशासन की दुहाई देने वाले ये नेता उसी परंपरा को खत्म करने में जुटे हैं। पद की लोलुपता और सत्ता के प्रति अगाध प्रेम ने भाजपा नेताओं को आम लोगों से दूर कर दिया। सत्ता मोह की खातिर गठबंधन करने वाली भाजपा ने खुद को पार्टी के संविधान और नीतियों से खुद को दूर कर लिया।
आज हालात यह है कि पार्टी में आडवाणी और वाजपेयी के बाद दूसरी पंक्ति के नेताओं का सैन्य समूह आपस में मारकाट करने में लगा है। पर इस फौज में न कोई कर्नल है और न ही कोई सेना। सभी अधिकारी श्रेणी के कथित नेता हैं। हर किसी का अपना गुट है और गुटबाजी को हवा देने वाले अलग-अलग सुर में गान करने वाले गवैये भी। बस एक चीज अगर कॉमन है तो सभी के पास है कमल नामक झंडा।
ये नेता जानते हैं कि प्रेस ब्रीफिंग में भले ही ऊंची-ऊंची बात कहा जाए, जनता के सामने उनकी हैसियत जीरो है। कल्याण सिंह, बाबूलाल मरांडी, उमा भारती, सुरेश मेहता, केशुभाई पटेल जैसा कई नेता इस चीज के भुक्तभोगी हैं। इनमें से कई ने खुद को वनवास की आग में जलाकर घर वापसी भी की, पर उन्हें पहले जैसा न ओहदा मिला और न ही इज्जत।
आम चुनाव के बाद आडवाणी ने पद छोडऩे की पेशकश की और फिर अपनी बात से पलट भी गए। इससे अन्य नेताओं में यह संदेश गया कि यदि नेतृत्वकर्ता ही अपनी बात पर कायम न रहे तो फिर उनकी क्या बिसात। बस यहीं से इनमें सिर-फुट्टौवल शुरू हो गई। आखिर ये नेता कहां जाकर चेतेंगे...। आम लोगों के विकास और उन्नति की दुहाई देने वाले ये राजसेवक पता नहीं कब सुधरेंगे....।
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