मास्टर जी उसे सिखाना
समय भले ही लग जाय, पर
यदि सिखा सको तो उसे सिखाना
कि पाए हुए पांच से अधिक मूल्यवान-
स्वयं एक कमाना
पाई हुई हार को कैसे झेले,
उसे यह भी सिखाना
और साथ ही सिखाना,
जीत की खुशियां मनाना
यदि हो सके तो ईष्र्या या द्वेष से परे हटाना
और जीवन में छिपी
मौन मुस्कान का पाठ पढ़ाना
जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना
कि दूसरों को आतंकित करने वाला
स्वयं कमजोर होता है।
(अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र के शिक्षक को लिखे गए पत्र का एक अंश)
सोमवार, 7 सितंबर 2009
रविवार, 6 सितंबर 2009
कुर्सी के पीछे भागते 'जनसेवक’
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के आंध्रप्रदेश में जिस तरह राजनीति का कुत्सित खेल खेला जा रहा है, वह अक्षम्य और अप्रशंसनीय है। वाईएस राजेशखर रेड्डी की मौत के बाद सीएम की कुर्सी को लेकर जोड़तोड़ शुरू हो गई है। मौत के अभी चंद दिन ही गुजरे हैं, किंतु वहां पदलोलुप राजनेताओं ने अपना (वाजिब!) हक दिखाना (भीख मांगना!) आरंभ कर दिया है। विधानसभा जैसे पवित्र सदन में उन्होंने जिस तरह नारेबाजी और हंगामा किया, इसे देखकर हर भारतीय का सर अपने आप झुक जाएगा।
जनसेवक से ये राजनेता कब 'जनभक्षक’ बन गए, पता नहीं चला। अभी भी हमारे समाज में किसी की मौत पर खास अवधि तक शोक मनाया जाता है। पर, (दुर्भाग्य से) वहां तो कुर्सी को लेकर राजनीतिक शोक मनाने की एक अलग ही परंपरा चल पड़ी है। आखिर ये राजनेता क्या सिद्ध करना चाहते हैं? या फिर इस मैराथन दौड़ में वल्र्ड चैंपियन बोल्ट का रिकॉर्ड तोडऩा चाहते हैं? या उनकी मंशा कुछ और ही है?
यह होड़ किसी एक खास राज्य तक सीमित नहीं है। आज देश के हर कोने-चौराहे पर यह एक परंपरा सी बन गई है। आंध्रप्रदेश में दिवंगत राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन को सीएम बनाने की मांग की जा रही है। पर क्या जगन को सिर्फ इसलिए सीएम बनाना चाहिए कि वे दिवंगत मुख्यमंत्री के बेटे हैं? यदि यह परंपरा राजनीति में संवैधानिक तरीके से आरक्षित होती है, तो फिर काबिलियत और प्रतिभा का पैमाना ही क्या रहेगा?
तो फिर, इस अंधी दौड़ में एक मंदबुद्धि और मूर्ख भी अपने गौरवशाली पिता के स्थान पर उसकी गद्दी का वारिस का दावा करने से पीछे नहीं हटेगा। पर, दुख की बात यह है कि देश को चलाने वाले राजनेता ही इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। आज हर सीएम, एमएलए और एमपी अपने बेटे-बेटियों को ही वारिस बनाना चाहता है। ताकि राजनीति में उनका वंश हमेशा चलता रहे। भला ऐसा क्यों?
जनसेवक से ये राजनेता कब 'जनभक्षक’ बन गए, पता नहीं चला। अभी भी हमारे समाज में किसी की मौत पर खास अवधि तक शोक मनाया जाता है। पर, (दुर्भाग्य से) वहां तो कुर्सी को लेकर राजनीतिक शोक मनाने की एक अलग ही परंपरा चल पड़ी है। आखिर ये राजनेता क्या सिद्ध करना चाहते हैं? या फिर इस मैराथन दौड़ में वल्र्ड चैंपियन बोल्ट का रिकॉर्ड तोडऩा चाहते हैं? या उनकी मंशा कुछ और ही है?
यह होड़ किसी एक खास राज्य तक सीमित नहीं है। आज देश के हर कोने-चौराहे पर यह एक परंपरा सी बन गई है। आंध्रप्रदेश में दिवंगत राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगनमोहन को सीएम बनाने की मांग की जा रही है। पर क्या जगन को सिर्फ इसलिए सीएम बनाना चाहिए कि वे दिवंगत मुख्यमंत्री के बेटे हैं? यदि यह परंपरा राजनीति में संवैधानिक तरीके से आरक्षित होती है, तो फिर काबिलियत और प्रतिभा का पैमाना ही क्या रहेगा?
तो फिर, इस अंधी दौड़ में एक मंदबुद्धि और मूर्ख भी अपने गौरवशाली पिता के स्थान पर उसकी गद्दी का वारिस का दावा करने से पीछे नहीं हटेगा। पर, दुख की बात यह है कि देश को चलाने वाले राजनेता ही इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। आज हर सीएम, एमएलए और एमपी अपने बेटे-बेटियों को ही वारिस बनाना चाहता है। ताकि राजनीति में उनका वंश हमेशा चलता रहे। भला ऐसा क्यों?
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