शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

जख्मी सिपाहियों से वर्ल्ड कप जीतने का ख्वाब!


क्रिकेट मैदान पर खेल सिर्फ बैट और बल्ले के बीच नहीं होता है। बल्कि, प्रतिद्वंद्वी टीम और खिलाड़ी भी एक दूसरे के खिलाफ मेंटल गेम का बखूबी इस्तेमाल करते हैं। पर जब मैदान पर खिलाड़ी ही जख्मी हो तो वह भला कैसे और किसको अपनी हुनर दिखाएगा।

टीम इंडिया पहले से ही सचिन, युवराज और आशीष नेहरा की फिटेनस समस्या से जूझ रही है। अब इस फेहरिश्त में वीरू भी शामिल हो गए हैं। यही हालत कमोबेश चार बार की वर्ल्ड चैंपियन कंगारू टीम की भी है। धाकड़ बल्लेबाज माइक हसी के बाद अब बोलिंजर भी चोटिल होकर बिना एक मैच खेले वतन लौट गए हैं। वेस्टइंडीज में ड्वान ब्रावो भी जख्मी होकर स्वदेश लौट चुके हैं। यही हालत अन्य टीमों की भी है जो अपने जख्मी सिपाहियों का दर्द महससू कर रही है।

आखिर चार साल में एक बार होने वाली इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? क्रिकेट प्रशासक इन जख्मी सिपाहियों की बढ़ती तादाद से चिंतित जरूर हैं। पर न आईसीसी और न ही कोई क्रिकेट बोर्ड ये समझना चाहता है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? उन्हें तो बस चिंता है कहीं इससे वर्ल्ड कप का ग्लैमर न घट जाए?

और तो अब आईपीएल नामक ‘भस्मासुर’ भी पैदा हो गया है। वनडे को निगलने को आतुर यह टूर्नामेंट पता नहीं कितने खिलाड़ियों को जख्मी करेगा। ढेर सारे पैसे कमाने की लालच ने खिलाड़ियों को देश के बदले क्लब के प्रति निष्ठावान बना दिया है। पता नहीं, इन खिलाड़ियों का क्या होगा!

आतंकियों के रंग में रंगे नक्सली

‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना....’ कौमी तराना इंसानों के लिए भूली-बिसरी यादें बन गया है। अब तो इस पर नक्सल और आतंक के स्याह रंग ने इंसानों को ही एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। कभी दंतेवाड़ा में दर्जनों सिपाहियों की हत्या होती है तो कभी इराक, अफगानिस्तान में आतंकी आत्मघाती धमाके कर सैकड़ों लोगों को मौत की नींद में सुला देते हैं।

ऐसी घटनाएं हिंदुस्तान के लिए विशेष रूप से चिंताजनक है। नक्सल और आतंक नामक दो ‘अजगर’ आम लोगों को निगलने के लिए आतुर है। मौजूदा परिदृश्य में ये एक ही सिक्के दो पहलू हैं। इनमें से एक हमारा ही शोषित बंधु है जो अपने भाई-बहनों का कत्लेआम कर रहा है। वहीं दूसरे को ‘इंपोर्ट एनेमी’ कह सकते हैं। इन दोनों का एकमात्र उद्देश्य है लोगों में दहशत और खौफ पैदा करना। यह बहुत ही आश्चर्य की बात है जिन उद्देश्य को लेकर इनका जन्म हुआ, वह बिल्कुल गायब दिखता है।

1967 में सशक्त क्रांति के माध्यम से किसानों और मजदूरों को उनका हक दिलाने के लिए पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान पर नक्सलवाद की शुरुआत हुई। इनके सिद्धांत मार्क्सवाद से प्रभावित थे जबकि तरीके माओवाद से। चीन में सशक्त क्रांति के नेता माओ का कहना था राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। वहीं आतंक का भी बहुत कुछ इसी से मिलता-जुलता स्वरूप है। सबसे खतरनाक बात यह है कि आतंकियों में सबसे अधिक तादाद उन गुमराह मुसलमानों की है जो खुद को इस्लाम का सच्चा सिपाही मानते हैं। उनकी नजर में मूर्तिपूजक और ब्याज लेने वाले लोग काफिर हैं।

उनके दिल और दिमाग को इस तरह से घुट्ठी पिलाई गई है कि काफिरों का कत्लेआम करने के बाद उन्हें जन्नत नसीब होगी। इस बेहोशी में वे स्वधर्मी को भी गोली से भूनने में फक्र महसूस करते हैं। आज नक्सलियों और आतंकियों का सफलता पैमाना शवों का आंकड़ा बन गया है। सरकारी आंकड़े कहते हैं पिछले साल आतंकियों की गोली से 133 लोगों ने अपनी जान गंवाई। वहीं, नक्सलियों ने 908 लोगों को मौत की घाट उतार डाला। इससे साफ है कि देश के सामने आतंकियों से अधिक खतरा नक्सलियों से है।

सबसे दुख की बात यह आम लोगों के स्वघोषित पहरेदार उन्हें की मौत की नींद सुलाने में सबसे आगे हैं। आज देश के 28 राज्यों से 23 राज्य इन नक्सलियों के निशाने पर हैं। इन राज्यों में उन्हें न सिर्फ जनसमर्थन हासिल है, बल्कि हथियार भी यहीं से हासिल होते हैं। इसलिए भारत सरकार को सचेत रहने की जरूरत है कि आतंकवाद पर चिल्लाने के बदले आतंक और नक्सल के बीच महीन लकीर को पहचान कर उसका नेस्तनाबूद करें।