अपना पराया
सोमवार, 13 नवंबर 2017
शनिवार, 10 सितंबर 2016
मंगलवार, 3 नवंबर 2015
ये कैसी असहिष्णुता?
यदि आप गूगल में असहिष्णुता शब्द टाइप करें तो सर्च में 3,57,000 रिजल्ट आते हैं. यह साफ दिखाता है कि कैसे महज एक शब्द ने देश की सियासी और सांस्कृतिक माहौल को हिलाकर रख दिया है.
यह शब्द आजकल हर किसी के जबान पर है. राजनेता हो या अभिनेता, फिल्मकार या फिर लेखक...ऐसी लंबी फेहरिश्त हो रही है जो अपने मुताबिक असहिष्णुता का व्याख्या कर रहा है. यह जानते हुए भी महज इस शब्द की वजह से देश का तानाबाना छिन्न-भिन्न हो रहा है. दुश्मनों को हम पर ऊंगलियां उठाने का मौका मिल रहा है. पड़ोसी मुल्कों को दखल देने की वजह मिल रही है. क्या कोई भी भारतीय यह चाहेगा कि देश की एकता और अखंडता इस कदर टूटकर खत्म हो जाए?
ये कैसा हक?
ये माना कि लोकतंत्र में आपको अपनी आवाज उठाने की आजादी है. आपको विरोध जताने की स्वतंत्रता है. आपको हक है कि आप चाहें किसी भी तरह मनमर्जी से जिंदगी का लुत्फ उठाएं. लेकिन क्या लोकतंत्र आपको यह आजादी देता है कि आप अपनी बातों से समाज में टकराहट पैदा करें? भाइयों को एक दूजे का दुश्मन बनाएं? केवल चंद वोटों के लिए दो समुदायों के बीच लंबी दीवार खड़ी कर दें? सत्ता पाने के लिए मारकाट जैसा माहौल पैदा कर दें?
कोई भी समाज यह अधिकार नहीं देता कि आप कानून हाथ में लेकर किसी की जान ले लें. इसका मतलब यह भी नहीं है कि यदि किसी एक शख्स ने गलती की है तो पूरे समाज या फिर संगठन को जिम्मेदार ठहराएं?
ये कैसा विरोध?
उदाहरण गिनाएं तो लंबी सीरीज नजर आती है. बस एक नजर उठाकर बिहार के सियासी माहौल और पुरस्कार लौटाने को लेकर हो रहे विवादों पर दें. पुरस्कार और सम्मान लौटाने वालों के बीच होड़ चल रही है. रोजाना कोई न कोई सम्मान लौटाकर खबरों की सुर्खियां बन रहा है. ये माना कि आप सम्मान लौटाकर विरोध जता सकते हैं. लेकिन जिस उपलब्धि को लेकर आपको सम्मान मिला, क्या आप उसे लौटाकर उसकी तौहीन नहीं कर रहे हैं.?
कैसे करें यकीन?
बिहार चुनाव में जिस कदर राजनेता स्तरहीन और गंदी जुबानी जंग में उलझ पड़े हैं, उसे सुनकर भी शर्म आती है. यकीन नहीं होता कि इन प्रतिनिधियों को हमने ही चुना है. यही हमारे नीति निर्माता है. इसी के हवाले हम अपनी और आने वाली पीढ़ी की तकदीर हवाले कर रहे हैं. बस खुद पर कोफ्त होती है कि आखिर हम कैसे खुद पर यकीन भरोसा दिलाएं कि सबकुछ ठीक हो जाएगा.
यह शब्द आजकल हर किसी के जबान पर है. राजनेता हो या अभिनेता, फिल्मकार या फिर लेखक...ऐसी लंबी फेहरिश्त हो रही है जो अपने मुताबिक असहिष्णुता का व्याख्या कर रहा है. यह जानते हुए भी महज इस शब्द की वजह से देश का तानाबाना छिन्न-भिन्न हो रहा है. दुश्मनों को हम पर ऊंगलियां उठाने का मौका मिल रहा है. पड़ोसी मुल्कों को दखल देने की वजह मिल रही है. क्या कोई भी भारतीय यह चाहेगा कि देश की एकता और अखंडता इस कदर टूटकर खत्म हो जाए?
ये कैसा हक?
ये माना कि लोकतंत्र में आपको अपनी आवाज उठाने की आजादी है. आपको विरोध जताने की स्वतंत्रता है. आपको हक है कि आप चाहें किसी भी तरह मनमर्जी से जिंदगी का लुत्फ उठाएं. लेकिन क्या लोकतंत्र आपको यह आजादी देता है कि आप अपनी बातों से समाज में टकराहट पैदा करें? भाइयों को एक दूजे का दुश्मन बनाएं? केवल चंद वोटों के लिए दो समुदायों के बीच लंबी दीवार खड़ी कर दें? सत्ता पाने के लिए मारकाट जैसा माहौल पैदा कर दें?
कोई भी समाज यह अधिकार नहीं देता कि आप कानून हाथ में लेकर किसी की जान ले लें. इसका मतलब यह भी नहीं है कि यदि किसी एक शख्स ने गलती की है तो पूरे समाज या फिर संगठन को जिम्मेदार ठहराएं?
ये कैसा विरोध?
उदाहरण गिनाएं तो लंबी सीरीज नजर आती है. बस एक नजर उठाकर बिहार के सियासी माहौल और पुरस्कार लौटाने को लेकर हो रहे विवादों पर दें. पुरस्कार और सम्मान लौटाने वालों के बीच होड़ चल रही है. रोजाना कोई न कोई सम्मान लौटाकर खबरों की सुर्खियां बन रहा है. ये माना कि आप सम्मान लौटाकर विरोध जता सकते हैं. लेकिन जिस उपलब्धि को लेकर आपको सम्मान मिला, क्या आप उसे लौटाकर उसकी तौहीन नहीं कर रहे हैं.?
कैसे करें यकीन?
बिहार चुनाव में जिस कदर राजनेता स्तरहीन और गंदी जुबानी जंग में उलझ पड़े हैं, उसे सुनकर भी शर्म आती है. यकीन नहीं होता कि इन प्रतिनिधियों को हमने ही चुना है. यही हमारे नीति निर्माता है. इसी के हवाले हम अपनी और आने वाली पीढ़ी की तकदीर हवाले कर रहे हैं. बस खुद पर कोफ्त होती है कि आखिर हम कैसे खुद पर यकीन भरोसा दिलाएं कि सबकुछ ठीक हो जाएगा.
गुरुवार, 9 जनवरी 2014
लंबी जुदाई का दर्द
आज लंबे अरसे बाद मैंने अचानक ब्लॉग देखा तो दिल सन्न से रह गया। ये क्या किया मैंने!
'अपना पराया' से एक साल की जुदाई का दर्द मैंने खुद के दिल में छुपाए रखा। पता नहीं मैंने ऐसा क्यों किया। लगता है शायद मैं खुद से दूर चला गया था। यही वजह रही कि मेरा ब्लॉग भी मुझसे खफा खफा हो गया।
पर अब ऐसा नहीं होगा। मैं जानता हूं कि निराशा, नाकामी तो जिंदगी का हिस्सा है। यदि ये सारी चीजें हमारी जिंदगी में न हों तो फिर कैसे खुशी, सफलता और प्रेम की अहमियत समझ पाएंगे।
पिछले एक साल की बात करूं तो जिंदगी बहुत कुछ बदल गई है।
अब मेरा प्यारा बेटा आदित्य बड़ा हो गया है। स्कूल जाने लगा है। हालांकि उसकी छोटी-छोटी गलतियां अभी भी हंसाती है। उसकी शिकायतों का पुलिंदा बढ़ रहा है, साथ में फरमाइशों का पिटारा भी।
खुद को उम्र में छोटा मानना आदि को अच्छा नहीं लगता। वह जल्द से जल्द बड़ा होना चाहता है। ये उसकी नादानी कहें या फिर बचपना, वह हर चीज सीखना चाहता है।
मां-बाबूजी से दूर रहना दिल को बड़ा खलता है लेकिन क्या करूं। उनलोगों को याद कर या फिर फोन कर खुद को उनके करीब ले जाता हूं।
वैसे कहने को बहुत कुछ है। रात के 1.48 बज रहे हैं।
अब घर जाना है और फिर डीडी न्यूज में इंटरव्यू देने जाना भी है। देखता हूं इसका क्या नतीजा आता है।
बस खुद से एक वादा करता हूं कि....।
'अपना पराया' से एक साल की जुदाई का दर्द मैंने खुद के दिल में छुपाए रखा। पता नहीं मैंने ऐसा क्यों किया। लगता है शायद मैं खुद से दूर चला गया था। यही वजह रही कि मेरा ब्लॉग भी मुझसे खफा खफा हो गया।
पर अब ऐसा नहीं होगा। मैं जानता हूं कि निराशा, नाकामी तो जिंदगी का हिस्सा है। यदि ये सारी चीजें हमारी जिंदगी में न हों तो फिर कैसे खुशी, सफलता और प्रेम की अहमियत समझ पाएंगे।
पिछले एक साल की बात करूं तो जिंदगी बहुत कुछ बदल गई है।
अब मेरा प्यारा बेटा आदित्य बड़ा हो गया है। स्कूल जाने लगा है। हालांकि उसकी छोटी-छोटी गलतियां अभी भी हंसाती है। उसकी शिकायतों का पुलिंदा बढ़ रहा है, साथ में फरमाइशों का पिटारा भी।
खुद को उम्र में छोटा मानना आदि को अच्छा नहीं लगता। वह जल्द से जल्द बड़ा होना चाहता है। ये उसकी नादानी कहें या फिर बचपना, वह हर चीज सीखना चाहता है।
मां-बाबूजी से दूर रहना दिल को बड़ा खलता है लेकिन क्या करूं। उनलोगों को याद कर या फिर फोन कर खुद को उनके करीब ले जाता हूं।
वैसे कहने को बहुत कुछ है। रात के 1.48 बज रहे हैं।
अब घर जाना है और फिर डीडी न्यूज में इंटरव्यू देने जाना भी है। देखता हूं इसका क्या नतीजा आता है।
बस खुद से एक वादा करता हूं कि....।
बुधवार, 9 मई 2012
वक्त ने किया क्या हसीं सितम...
वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..
बेकरार दिल, इस तरह मिले,
जिस तरह कभी हम जुदा न थे..
तुम भी खो गए, हम भी खो गए..
एक राह पर चल के दो कदम..
वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..
जाएंगे कहां, सूझता नहीं..
चल पड़े मगर, रास्ता नहीं..
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं..
बुन रहे हैं दिन, ख्वाब दम-बदम
वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..
यह खूबसूरत नगमा 'कागज के फूल' का है जिसे मशहूर शायर कैफी आजमी ने लिखा था। आजमी साहब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके दर्दभरे अल्फाज हमारे दिल में हमेशा मौजूद रहेंगे।
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..
बेकरार दिल, इस तरह मिले,
जिस तरह कभी हम जुदा न थे..
तुम भी खो गए, हम भी खो गए..
एक राह पर चल के दो कदम..
वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..
जाएंगे कहां, सूझता नहीं..
चल पड़े मगर, रास्ता नहीं..
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं..
बुन रहे हैं दिन, ख्वाब दम-बदम
वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
तुम रहे ना तुम, हम रहे ना हम..
यह खूबसूरत नगमा 'कागज के फूल' का है जिसे मशहूर शायर कैफी आजमी ने लिखा था। आजमी साहब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके दर्दभरे अल्फाज हमारे दिल में हमेशा मौजूद रहेंगे।
मंगलवार, 1 मई 2012
इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन कौन?
एक सवाल जो हर लम्हा मन को कचोटता है...आखिर इंसान का दुश्मन कौन है? कहने को तो इंसान खुद को खुदा का सबसे खूबसूरत तोहफा मानता है। पर क्या सच में यह खुद की प्रशंसा नहीं है? हो सकता है कि हर किसी को बेवकूफ मानने वाले इंसान की एक और यह चालाकी हो?
कहीं भी दूर जाने की जरूरत नहीं...बस मन के दर्पण में झांकिए इस अनसुलझे सवाल का जवाब मिल जाएगा। वैसे भी हर इंसान में कुछ ऐसी बुराइयां जरूर होती है जो उसके तन और मन को कचोटती है। इन इंसानों की फेहरिश्तों में एक मैं भी हो सकता हूं और इसमें चौंकने की भी जरूरत नहीं।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। खुदा ने जब इस खूबसूरत जन्नत को बनाया होगा, उनके दिमाग में ऐसी दुनिया को सोच होगी जहां हर फूल अपनी मर्जी से खिलेगा। उसकी खूशबू हर किसी के मन को पवित्र करेगी। दुख की बात तो बस यह है कि तमाम बुराइयां हमारे खून में घुल चुकी है और चाहकर भी हम इसे खत्म नहीं कर पा रहे हैं।
किसी शायर ने सच ही कहा है कि शरीर में दौड़े तो पानी और सड़क पर बहे तो खून...। यह कुछ ऐसी हकीकत है जिसे हम या आप भले ही न माने तो पर यह कटु सच्चाई है।
कहीं भी दूर जाने की जरूरत नहीं...बस मन के दर्पण में झांकिए इस अनसुलझे सवाल का जवाब मिल जाएगा। वैसे भी हर इंसान में कुछ ऐसी बुराइयां जरूर होती है जो उसके तन और मन को कचोटती है। इन इंसानों की फेहरिश्तों में एक मैं भी हो सकता हूं और इसमें चौंकने की भी जरूरत नहीं।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। खुदा ने जब इस खूबसूरत जन्नत को बनाया होगा, उनके दिमाग में ऐसी दुनिया को सोच होगी जहां हर फूल अपनी मर्जी से खिलेगा। उसकी खूशबू हर किसी के मन को पवित्र करेगी। दुख की बात तो बस यह है कि तमाम बुराइयां हमारे खून में घुल चुकी है और चाहकर भी हम इसे खत्म नहीं कर पा रहे हैं।
किसी शायर ने सच ही कहा है कि शरीर में दौड़े तो पानी और सड़क पर बहे तो खून...। यह कुछ ऐसी हकीकत है जिसे हम या आप भले ही न माने तो पर यह कटु सच्चाई है।
रविवार, 18 सितंबर 2011
'आदि' नाम है मेरा....
आइए मैं अपनी कहानी सुनाता हूं....यह कहानी है ऐसे बच्चे की जो सबका प्यारा-दुलारा है...
मेरा नाम 'आदि' है...यानी 'आदित्य नयन'। पर पूरा नाम तो बोलने आता नहीं, इसलिए मैं खुद को 'आदि' बुलाता हूं। सभी लोग मेरा ही नकल कर 'आदि' नाम से बुलाते हैं।
वैसे मैं सबका प्यारा हूं...इसमें मेरी मम्मी, पापा, छोटी मम्मी, बाबा, दाई मां, बा (नाना), मां (नानी), मामा और न जाने कई सारे लोग शामिल हैं...पर सच में मैं हूं सबका दुलारा....
हूं मैं बहुत ही नटखट, प्यारा और मासूम...यदि मेरी पसंद की चीज न मिले तब ही मैं 'बदमाश' सा लगता हूं। मुझे टॉफी, ठंडा (कोल्ड ड्रिंक), समशा (समोशे), हमजा (हाजमोला), सेंटी (परफ्यूम) बेहद पंसद है। शाम में पापा के साथ ऑफिस जाने का मजा लेता हूं..वहां पर झूले पर बैठने का मजा ही कुछ और है, बशर्ते उस पर कोई और बच्चा न हो।
कभी-कभी गुस्से में मम्मी मुझे डांट देती हैं, वैसे वह मुझे प्यार भी सबसे ज्यादा करती है। आखिर भाई करे क्यों नहीं, मैं उनका राज-दुलारा जो ठहरा।
टीवी पर मैं एक ही प्रोग्राम देखता हूं..बी वाला (9XM पर बड़े-छोटे)। पुराने गाने मुझे पंसद नहीं....आजकल बॉडीगार्ड का 'तेरी मेरी प्रेम कहानी...' अच्छा लगता है।
आजकल मैं ताकत बढ़ाने के लिए रोजाना हॉर्लिक्स पीता हूं...पापा कहते हैं इससे बॉडी बनेगा और मैं ऑफिस (पार्क) में बच्चों के साथ ढिशुम-ढिशुम करूंगा...
आजकल पापा ने मुझे एक किताब लाकर दी है...इसमें पंतंग (पतंग), एप्पल, टीवी, फैन न जाने कैसे-कैसे फोटो हैं...अरे हां फोटो से मुझे याद आया कि पापा के मोलो (मोबाइल) में मेरे कई सारे फोटो हैं...कभी मिले तो वह सारे फोटो दिखाऊंगा...
ओके...बाय...
मेरा नाम 'आदि' है...यानी 'आदित्य नयन'। पर पूरा नाम तो बोलने आता नहीं, इसलिए मैं खुद को 'आदि' बुलाता हूं। सभी लोग मेरा ही नकल कर 'आदि' नाम से बुलाते हैं।
वैसे मैं सबका प्यारा हूं...इसमें मेरी मम्मी, पापा, छोटी मम्मी, बाबा, दाई मां, बा (नाना), मां (नानी), मामा और न जाने कई सारे लोग शामिल हैं...पर सच में मैं हूं सबका दुलारा....
हूं मैं बहुत ही नटखट, प्यारा और मासूम...यदि मेरी पसंद की चीज न मिले तब ही मैं 'बदमाश' सा लगता हूं। मुझे टॉफी, ठंडा (कोल्ड ड्रिंक), समशा (समोशे), हमजा (हाजमोला), सेंटी (परफ्यूम) बेहद पंसद है। शाम में पापा के साथ ऑफिस जाने का मजा लेता हूं..वहां पर झूले पर बैठने का मजा ही कुछ और है, बशर्ते उस पर कोई और बच्चा न हो।
कभी-कभी गुस्से में मम्मी मुझे डांट देती हैं, वैसे वह मुझे प्यार भी सबसे ज्यादा करती है। आखिर भाई करे क्यों नहीं, मैं उनका राज-दुलारा जो ठहरा।
टीवी पर मैं एक ही प्रोग्राम देखता हूं..बी वाला (9XM पर बड़े-छोटे)। पुराने गाने मुझे पंसद नहीं....आजकल बॉडीगार्ड का 'तेरी मेरी प्रेम कहानी...' अच्छा लगता है।
आजकल मैं ताकत बढ़ाने के लिए रोजाना हॉर्लिक्स पीता हूं...पापा कहते हैं इससे बॉडी बनेगा और मैं ऑफिस (पार्क) में बच्चों के साथ ढिशुम-ढिशुम करूंगा...
आजकल पापा ने मुझे एक किताब लाकर दी है...इसमें पंतंग (पतंग), एप्पल, टीवी, फैन न जाने कैसे-कैसे फोटो हैं...अरे हां फोटो से मुझे याद आया कि पापा के मोलो (मोबाइल) में मेरे कई सारे फोटो हैं...कभी मिले तो वह सारे फोटो दिखाऊंगा...
ओके...बाय...
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