रविवार, 31 जनवरी 2010

क्या आप 'नेताजी’ बनेंगे?

सामने लजीज व्यंजन और जी न लपलपाए। ऐसा तो हो नहीं सकता। कुछ ऐसा ही स्वाद सत्ता का होता है। हर कोई चखना चाहता है, और खासकर जब राजनीति हमारी जीन में बसी हो। घर से लेकर देश-दुनिया की राजनीति में इतने सारे पेंच हैं कि आप कभी भी इससे अछूते नहीं रह सकते। इस घालमेल में हर किसी की जुबान पर एक ही बात होती है कि अरे यार पूछो मत, यहां की राजनीति बहुत ही गंदी है। भले ही यहां आपके नफा-नुकसान पर इसकी परिभाषा बदलती हो। यह हमारा स्वभाव बन गया है कि हर कोई इसका स्वाद लेना चाहता है, भले ही रास्ता नैतिक हो या अनैतिक।

इस सबके बीच जब देश की राजनीति की बात की जाए तो बहुत ही कोफ्त होती है। यहां बुढ़ापे को भी जवानी-प्रौढ़ावस्था में देखा जाता है। यदि आप राजनीति में 40 साल के हैं तो आपकी तरुणाई शुरू होती है। जो जितना बूढ़ा होता है, उसकी अहमियत बढ़ती रहती है। हर वसंत के साथ आपकी महत्वाकांक्षा भी उतनी ही तेजी से छलांग मारती है।

इसमें नेताओं का कर्मभूमि बदलते ही उतनी ही तेजी से सुर और नीति भी बदल जाता है। यदि पार्टी सत्ता में है तो यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है। इसकी नीति, चाल और चरित्र आंद मूदकर अनुकरणीय है। सत्ता की मलाई जितना खा सके, उतना ही कम है। पर, हार के साथ ही पार्टी की छीछलेदारी शुरू हो जाती है। और बिखराव की इस दौड़ में खुद के साथ कुछ छुटभैये टाइप के नेता नेताजी के आगे-पीछे दुम हिलाते नजर आते हैं। इन नेताओं की फौज ऐसे मक्खियों की तरह होती है, जिन्हें किसी मिठाई पर अधिकार जमाने के लिए भिनभिनाने से तनिक भी परहेज नहीं है।

इन नेताओं की योग्यता किसी स्कूल या कॉलेज में आंकी नहीं जाती। आप कितने बड़े दबंग और लूट खसोट वाले के तौर पर जाने जाते हैं, यही आपकी पहचान है। या फिर, चुनाव के वक्त पार्टी के खजाने में कितने हरे नोट फेंकने में माहिर और शातिर हैं। हमारी संस्कृति में दान एक पवित्र शब्द है, जिससे किसी भी दानवीर का अहम व्यक्तित्व सामने आता है। इनमें महायोद्धा दानवीर कर्ण के अलावा ऐसे ऋषि-मुनि शामिल हैं, जिनकी महत्वता सिर्फ नाम से जाहिर होती है।

पर अफसोस, इस कलयुगी दुनिया में दान शब्द कहीं विलोम हो गया है। इस पर चंदा और जबरन वसूली जैसे क्लिष्टï दायक झोपड़पट्टïी बन गया है। आजकल हर दलों में एक कोषाध्यक्ष पद का सृजन किया गया है, जो ब्लैक-व्हाइट धन का हिसाब-किताब रखता है। ये भद्रजन खुद और पार्टी के लिए कितना चंदा जुटा पाते हैं, यही उनकी योग्यता और पहचान बन गई है।