रविवार, 13 मार्च 2011
अगर मैं जिंदा लाश न होतीः अरुणा
हर किसी की अपनी जिंदगी प्यारी होती है। मुझे भी अपनी जिंदगी से उतना ही प्यार था। पर मुझे न तो जिंदगी रास आई और न ही मौत। 37 सालों से बिस्तर पर लेटे मेरे दिमाग में एक ही सवाल घूम रहा है कि आखिर ऐसा क्यों?
मैंने तो बस आम लोगों के जख्म पर मरहम लगाने के लिए नर्स बनने का फैसला किया था, पर मौजूदा हालात ने मुझे जिंदा लाश बना दिया है। एक दरिंदे की मेरी काया पर नजर पड़ी और फिर.....।
27 नवंबर, 1973 की शाम मेरे साथ यह हादसा हुआ। ठीक एक माह बाद मेरी शादी होने वाली थी। मैं बहुत खुश थी कि शहनाई की गूंज में मैं ढेर सारे ख्वाबों की मल्लिका बनूंगी। पर, सपने काश सच हो पाते। मेरे सपनों के हत्यारे को महज 6 साल बाद रिहाई मिल गई। और आज भी मैं खुशियों के हर पल की मोहताज बन गई। मेरे मां-बाप ने तो उस ‘काले दिन’ से ही मुझसे मुंह मोड़ लिया। एक आस थी मौत की, पर लगता है वह भी मुझसे रूठ गई है।
इस हार इतनी हाय-तौबा क्यों?
वर्ल्ड कप में यह पहली हार थी। पर, आदतन टीवी चैनल के स्वयंभू ‘स्मार्ट प्लेयर्स’ का गरजना शुरू हो गया। आलोचना के इस रेले में भला वेब और प्रिंट मीडिया भी कहां पीछे रहनेवाला था। फ्रंट पेज पर बड़े-बड़े अक्षरों में टीम इंडिया को जमकर कोसा गया। ब्लॉगर्स तो एक कदम और निकल गए और अपने-अपने ब्लॉग पर जमकर भड़ास निकाली।
यह सब देखकर एक आम क्रिकेट प्रेमी सिर्फ इन धुरंधरों पर हंस ही सकता है। इस हार से पहले क्रिकेट महाकुंभ में टीम ने चार मैचों में से तीन में जीत और एक टाई खेला था। इस दमदार प्रदर्शन के बदौलत टीम इंडिया क्वार्टर फाइनल में दस्तक दे चुकी थी। प्रोटियाज टीम के साथ यह जोर-आजमाइश की बारी थी। इस बार भाग्य विपक्षी खिलाड़ियों के साथ था और अंतिम ओवर में जीत छीन ले गए।
एक तरह से यह हार टीम इंडिया के लिए वेकअप कॉल थी। यदि टीम यह मैच जीत जाती तो फिर अपनी कमजोरियों पर इतना फोकस नहीं कर पाती, जो बेहद जरूरी है। यदि आप खुद को चैंपियन कहते हैं तो मैदान के बाहर और अंदर इसे साबित करना होता है। आशा है कि धोनी के धुरंधर अपनी गलतियों से सीख लेकर प्रशंसकों को नए साल का खूबसूरत सौगात देंगे।
यह सब देखकर एक आम क्रिकेट प्रेमी सिर्फ इन धुरंधरों पर हंस ही सकता है। इस हार से पहले क्रिकेट महाकुंभ में टीम ने चार मैचों में से तीन में जीत और एक टाई खेला था। इस दमदार प्रदर्शन के बदौलत टीम इंडिया क्वार्टर फाइनल में दस्तक दे चुकी थी। प्रोटियाज टीम के साथ यह जोर-आजमाइश की बारी थी। इस बार भाग्य विपक्षी खिलाड़ियों के साथ था और अंतिम ओवर में जीत छीन ले गए।
एक तरह से यह हार टीम इंडिया के लिए वेकअप कॉल थी। यदि टीम यह मैच जीत जाती तो फिर अपनी कमजोरियों पर इतना फोकस नहीं कर पाती, जो बेहद जरूरी है। यदि आप खुद को चैंपियन कहते हैं तो मैदान के बाहर और अंदर इसे साबित करना होता है। आशा है कि धोनी के धुरंधर अपनी गलतियों से सीख लेकर प्रशंसकों को नए साल का खूबसूरत सौगात देंगे।
शनिवार, 5 मार्च 2011
ऑफिस में गर्लफ्रैंड का फोन!
ये क्या कर रहे हो, जल्दी खबर लगाओ। इसी बीच टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज आ गई। उफ ये भी आफत ही है। टीवी पर भी ब्रेकिंग न्यूज अभी ही आनी थी। पर, ये क्या जेब में कुछ हलचल हो रही है। दिमाग में आया कि छोड़ो यार, मोबाइल की ओर देखा तो बैंड बज जाएगी। पर, दिल माने तो सही। आखिर दिल के आगे दिमाग सरेंडर हुआ। उंगलियां धीरे-धीरे जेब में रखे मोबाइल स्क्रीन को टच कर ही गई।
अरे! स्क्रीन पर मेम साहिबा की तसवीर है। अब तो दिल में चुलबुली सी मच गई। हां, बोलो कैसी हो। मैं तो अभी ऑफिस में हूं। जरा धीरे बोलो, बॉस बगल में बैठे हैं। पर, मेम साहिबा को इससे क्या फर्क पड़ता है। इतना कहते ही मेम साहिबा का पारा गरम हो गया। उधर, बॉस भी गरम हो रहे हैं। उफ, एयर कंडीशन हॉल में भी इतनी गरमी। अब सहन नहीं होता, इस गरमी को बाहर निकालना ही पड़ेगा, नहीं तो एटम ब्लास्ट होना तय है। ओ मेरी जान, जरा सब्र करो मैं बाहर आकर तुमसे बात करता हूं। और इतना कहते ही कदम गेट के बाहर चल पड़े।
कुछ संस्थान काम के नाम पर मोबाइल को साइलेंट पर रखने की तुगलकी फरमान जारी करते हैं। मोबाइल की घंटी बजते ही बॉस गुस्साते हैं, वहीं कॉल रिसीव नहीं करने पर गर्लफ्रैंड धमकी देती है। क्या इन मुश्किलों के हल के लिए हर ऑफिस में एक मोबाइल केबिन होना जरूरी है? अपनी राय जरूर दें।
अरे! स्क्रीन पर मेम साहिबा की तसवीर है। अब तो दिल में चुलबुली सी मच गई। हां, बोलो कैसी हो। मैं तो अभी ऑफिस में हूं। जरा धीरे बोलो, बॉस बगल में बैठे हैं। पर, मेम साहिबा को इससे क्या फर्क पड़ता है। इतना कहते ही मेम साहिबा का पारा गरम हो गया। उधर, बॉस भी गरम हो रहे हैं। उफ, एयर कंडीशन हॉल में भी इतनी गरमी। अब सहन नहीं होता, इस गरमी को बाहर निकालना ही पड़ेगा, नहीं तो एटम ब्लास्ट होना तय है। ओ मेरी जान, जरा सब्र करो मैं बाहर आकर तुमसे बात करता हूं। और इतना कहते ही कदम गेट के बाहर चल पड़े।
कुछ संस्थान काम के नाम पर मोबाइल को साइलेंट पर रखने की तुगलकी फरमान जारी करते हैं। मोबाइल की घंटी बजते ही बॉस गुस्साते हैं, वहीं कॉल रिसीव नहीं करने पर गर्लफ्रैंड धमकी देती है। क्या इन मुश्किलों के हल के लिए हर ऑफिस में एक मोबाइल केबिन होना जरूरी है? अपनी राय जरूर दें।
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