बुधवार, 26 अगस्त 2009

अब तेरा क्या होगा पंटर?

खेल में हार और जीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह हर खिलाड़ी के जीवन में आता है। पर यदि कोई खिलाड़ी सिर्फ हार के बाद (हार का डर?) आगामी सीरीज (इंग्लैंड के खिलाफ) में आराम करने की चाहत दिखाए, उसे आप क्या कहेंगे। ऐसा ही कुछ हमारे कंगारू कप्तान रिकी पोंटिंग कर रहे हैं। एशेज में हार क्या मिली, रिकी ने आराम करने की घोषणा कर दी। खासकर उस हालात में जब टीम के प्रदर्शन और नेतृत्वशैली की जमकर आलोचना हो रही हो। हार के बाद सभी खिलाडिय़ों का आत्मविश्वास बुरी तरह डगमगा गया है। इस हालात में कप्तान को चाहिए था कि वह सामने आकर सभी खिलाडिय़ों को एक नई राह दिखाते। पर अफसोस! रिकी टीम की कमान छोड़कर भागते दिख रहे हैं।

एशेज सीरीज में 2-1 से हार से क्या मिली, ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट के बुरे दिन आने शुरू हो गए। पोंटिंग को आजीवन अब ऐसे ताज संभालना होगा, जिनकी वो कल्पना भी नहीं करना चाहेंगे। वे अब ऐसे दूसरे कप्तान बन गए हैं, जिन्हें एशेज सीरीज में दो बार इंग्लैंड के हाथों सीरीज हारने का दंश झेलना पड़ा। पंटर की कामयाबी के घोड़े उस वक्त तक आसमान में काफी तेजी से उड़ते रहे, जब टीम में शेन वार्न, मैक्ग्रा, गिली जैसे खिलाडिय़ों का साथ मिला।

बुढ़ाते खिलाड़ी को ढोने का जुआ आखिर कब तक चयनकर्ता खेलते, इसलिए टीम से वरिष्ठï और अनुभवी खिलाडिय़ों को संन्यास लेने पर मजबूर किया गया। टेस्ट क्रिकेट में दूसरे सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले शेन वार्न ने खेल को विदाई दी। आईपीएल की चकाचौंध और बेशुमार पैसे ने एडम गिलक्रिस्ट और मैथ्यू हेडेन जैसे खिलाडिय़ों का कैरियर समय से पहले ही खत्म कर दिया। एंड्र्यू सायमंड्स को अनुशासनहीनता के चलते छुट्टी दे दी गई और टीम ने एक बेजोड़ और खब्बू खिलाड़ी को खो दिया।

इस सबके बीच नॉर्थ, ब्रैड हेडिन जैसे खिलाडिय़ों को टीम में मौका मिला, पर ये खिलाड़ी इन महान खिलाडिय़ों के कहीं भी आसपास नहीं दिखे। और पहली बार ऑस्ट्रेलिया को पिछले सात साल में टेस्ट रैंकिंग में चौथे पायदान पर खिसकना पड़ा। यदि टीम की रैंकिंग में गिरावट आए तो टीम इसे आगामी सीरीज में हासिल कर सकती है, किंतु कोई खिलाड़ी अपनी कमजोरी से मुंह छिपाए तो उस टीम का पराभव निश्चित है। शायद अब ऑस्ट्रेलिया की बादशाहत खतरे में पडऩे के साथ-साथ कमजोर और रीढ़हीन भी हो गई है।

रविवार, 16 अगस्त 2009

किंग खान घेरे में, बौना साबित हुआ 'कॉमन मैन’

दुनिया बदल गई। हिंदुस्तान ने आजादी के 62 साल पूरे कर लिए। पर क्या हमारी मानसिकता और सोच ने इस बदलाव को स्वीकार किया? और जब यह खबर आई कि अभिनेता शाहरुख खान को अमेरिका में यात्रा के दौरान कस्टम अधिकारियों ने पूछताछ के लिए हिरासत में लिया तो मानो भारतीय मीडिया में कोहराम मच गया। हर अभिनेता-नेता के विचार टीवी स्क्रीन पर रंग-बिरंगे गुब्बारे की तरह उछलने लगे। ऐसा लगा हर कोई एक-दूसरे के गुब्बारे को हथियाने में लगा हो। मानो, एक बार फिर से अमेरिकियों ने नागासाकी और हिरोशिमा जैसे विगत किसी हादसा को दुहराया हो।

इस सब के बीच जेहन में सवाल उभरता है कि आखिर क्यों हमारे देश में आज भी एक आम आदमी और सेलीब्रिटीज के बीच अच्छा खासा फासला है। इन सारे मामलों में संवैधानिक मौलिक अधिकार गौण हो जाते हैं और सेलीब्रिटीज अहम बन जाता है। क्या किसी आम भारतीय के साथ ऐसा होता तो इतना बवेला मचता? आखिर एक 'कॉमन मैन ’ और नामचीन हस्ती के बीच इतना दूरी क्यों?

अब जरा इन चार बयानों पर गौर फरमाएं:
'मेरे नाम के आगे खान जुड़ा है और मुझे लगता है कि जांच के लिए बनाई गई सूची में इसका कोई जिक्र नहीं है। ’ - शाहरुख खान
'ऐसा मेरे साथ भी हुआ है। अब तो जिस तरह वे हमारी जांच करते हैं, उसी तरह हमें भी अमेरिकियों की जांच करनी चाहिए। ’ - अंबिका सोनी
'ये अपमानजनक और स्तब्ध कर देने वाला है। मैं ये नहीं कहती कि शाहरुख की जांच मत करो, क्योंकि वो पूरी दुनिया में मशहूर एक्टर है। लेकिन सिर्फ इसलिए रोकना कि उनके नाम में खान जुड़ा है बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। ’ - प्रियंका चोपड़ा
'अमेरिका में जांच के कड़े प्रावधान हैं। तभी तो 9/11 के बाद कोई चरमपंथी घटना नहीं हुई। ये तो सबके साथ होता। इसे तूल नहीं देना चाहिए। ’ - सलमान खान


इनमें तीन सिनेमा से जुड़े हैं और एक राजनीति के झंडे को जोर से थामी हुई हैं। शाहरुख खान खुद के साथ किए गए बर्ताव से बेहद खिन्न नजर आते हैं। पर वही किंग खान जब सिनेमाई पर्दे पर किसी वरिष्ठï अभिनेता (मसलन मनोज कुमार) का फूहड़ तरीके से मजाक उड़ाते हैं, उनकी शर्मींदगी पता नहीं कहां छू-मंतर हो जाती है। हर चीज को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और बाजार में भुनाना आज कथित इन 'सभ्य पुरुषों ’ की आदत बनती जा रही है। चाहे इमरान हाशमी का मामला हो या फिर किंग खान का।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ दिनों पहले भी हमारे आदरणीय पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को भी इसी जांच प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था। पर शालीन और विनम्र कलाम ने इस घटना को ज्यादा तूल देने के बजाय इसे जांच का हिस्सा मानकर विराम लगा दिया। क्या हमारे ये अभिनेता और सेलीब्रिटीज इस उदाहरण को अपने जीवन में अपनाएंगे?

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

किस बात की आजादी?

आज हम आजाद हैं! हर साल की तरह इस बार भी हमारे हाथ में तिरंगा होगा और मंच पर भाषण देते जनता के (सच्चे) प्रतिनिधि। टीवी-रेडियो पर देशभक्ति के गाने बजेंगे और फिर अचानक एक शून्य...। काल के पहिए यथावत ही चलते रहेंगे और तब तक स्वतंत्र भारत एक और बसंत पार कर चुका होगा। पर क्या सिर्फ इतना कर देने से एक भारतीय का फर्ज खत्म हो जाता है?

इन सबके बीच एक सवाल सुलगता है कि आखिर कब तक अंग्रेजों से मिली गुलामी को खत्म करने का जश्न मनाते रहेंगे? सिर्फ पंद्रह अगस्त को झंडा फहराकर एक भारतीय का फर्ज निभाना ही आजादी है? या फिर शहरों की चकाचौंध में अपना अस्तित्व तलाशता एक ग्रामीण युवा की हसरत? क्या यह शारीरिक सुख की आजादी है या फिर मानसिक परतंत्रता की बेड़ी...। क्या यह आजादी सच में इतनी प्यारी है कि हम या आप किसी बात पर सहसा ही मुस्कुरा सके? क्या यही एक भारतीय की नीयति है? और शायद हां और ना के बीच झूलता एक अनसुलझा सवाल भी। अरमान और आशा के साथ उस सपने का क्या होगा, जिसके कल्पित अनुभव हमारे नीति-निर्धारकों ने देखे होंगे।

कड़वा सच तो यह है कि आज का दमकता भारत शहरों में बसता है। गांवों और वहां बसे लोगों की सुध किसी को नहीं है। हर बात पर प्रशासन और सरकार पर भड़ास निकालकर क्या हम अपनी दायित्व से मुंह नहीं छिपा रहे? सरकार की हर योजना और नीतियां शहर के इर्द-गिर्द घूमती है। शहर के लोग यदि खुश हैं तो भारत भी खुश (शायद मेरे इस विचार से कई लोग असहमत हो सकते हैं)! पर, आज हमारे 'बापू का गांव ’ किसी को नहीं दिखता। कहने को तो 'नरेगा ’ और ना जाने कैसी-कैसी योजनाएं (जो सिर्फ नेताओं को याद दिलाती है) चलाई जा रही है, पर यह किस तरह से कार्यान्वित हो रही है कोई नहीं जानना चाहता।

गांव की गरीबी कितनी भयावह है, किसी को कहने की जरूरत नहीं है। आज जब देश के 150 से ज्यादा जिले (सरकारी तौर पर) सूखे घोषित किए जा चुके हैं, तो जीएमओ (गु्रप ऑफ मिनिस्टर) सूखे से बचने का उपाय ढूंढ रहा है। एक किसान के माथे पर चिंताएं की लकीर खींच चुकी है, क्या कोई इसे मिटाने को सोचेगा। खेत में फसल नहीं लगी, और आगे.....? पसीने की आखिरी बूंद तो खेत में डाल दी और अब....?

कहीं न कहीं इस हालात के लिए हम सभी दोषी हैं। आज यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमने अपनों के लिए कितना क्या, बल्कि इससे हमारे आसपास के लोग कितने लाभान्वित हुए? गांव छूटा, तो शहर आ गए। कड़ी मशक्कत के बाद मंजिल मिली तो एक फ्लैट लेकर किसी अपार्टमेंट में खुद को कैद कर लिया। और फिर भूल गए जन्मभूमि को.....। यह किस्सा हर एक नौजवान के साथ जुड़ा है जो आज शहर की चकाचौंध में अपना अस्तित्व तलाशने में जुटा है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि साल में कम से कम एक बार ही सही हर नौजवान अपनी मिट्टी का कर्ज अदा करने गांव-कस्बा की ओर रुख करें। शायद इससे सिर्फ एक बार ही सही किसी का आंसू पोंछने का हमें मौका मिले।