मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय....। महान गायिका आशा ताई की मधुर स्वरों में गूंजती यह सुरीली तान हमें खुद के पास ले जाता है। जहां, हम स्वयं से बात कर सकते हैं। हां खुद से। मां की लोरी सुनते-सुनते सोना हमारी आदत थी। उनकी आंचल के तले चोरी-छिपे अमरूद और आम खाना हमारा अधिकार था। लगता है कि हमने उस लम्हों को कहीं छोड़ दिया है।
जीवन की इस आपाधापी में शायद हमने खुद को भी भूला दिया है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि कभी हम सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में बातें करें। उन सुरीली यादों को याद करें जिन्हें गांव की गलियों में गुल्ली-डंडा खेलते छोड़ आया था। पापा की मार से बचने के लिए झूठमूठ बीमार होने का बहाना बनाया था। बचपन में बड़ी हसरत थी कि जल्द से जल्द बड़ा हो जाऊं। बड़े होने के कई सारी फायदे दिखते थे। स्कूल जाने से छुट्टी मिलती और पापा की छड़ी से राहत। मैं देखा करता था कि पापा बड़े भईया को तो कुछ नहीं कहते थे। वे उनसे प्यार से बातें करते। वहीं, मेरी छोटी गलती पर भी डांट पड़ती।
आज तन से बड़ा हो गया हूं। जीवन के कई वसंत को पार कर चुका हूं। पर, मन में ढेर सारे सवाल लिए आज भी खुद के भीतर विचरण करता रहता हूं। कई सवाल मन में अनसुलझे हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर इन सवालों का जवाब कहां ढूंढू। कहीं न कहीं इसका जवाब तो मौजूद होगा। कहीं पढ़ा है कि हम-आप जो बोलते हैं वह ब्रह्मांड में मौजूद रहता है। तो क्या मन में उठे सवाल और इसके जवाब भी वहां मौजूद होंगे?
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर भाव
or ek bat or ye शब्द पुष्टिकरण hata do plz
होंगे जरुर बस मिलते कब है यह मुद्दा है.
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