रविवार, 26 दिसंबर 2010

ख्वाब को जिंदा करने की कोशिश

शायद वह सुनहरा दौर खत्म हो गया! जब भी हम या आप पीछे मुड़कर कुछ देखने की कोशिश करते हैं तो हमें कभी पथरीला राह दिखता है अथवा बंजर जमीन का टुकड़ा। एक अरसा बीत गया कि जब हम उन हरी-भरी भूमि पर खूबसूरत ख्वाब बुना करते थे। सपनों की दुनिया में सैर करने का तो अपना ही मजा है। बिना रोक-टोक के हर उस पल का जीवंत मजा लेना, इसका मुकाबला भला कौन कर सकता है। पर, यह क्या मंद-मंद समीर के अनचाहे झोंके ने उस सपने के शीशमहल को चकनाचूर कर दिया!!!!

पता नहीं कैसे, जब नींद खुली तब तक सब कुछ तहस-नहस हो चुका था। सामने वही हकीकत का पाजामा, जिसे पहनकर मैं अपने बिस्तर पर थका मांदा लेटा हुआ था। शायद यही मेरी नीयति थी और मैं अधूरे ख्वाब का एक हिस्सा। कहने को तो यूं कई सारे बहाने गिना सकता हूं। मसलन, भाई मेरे पास समय नहीं है कि इस सपने को पूरा करने के लिए। क्या बस चंद लफ्ज बयां कर देने से ही आपकी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? क्या आपका अस्तित्व लुप्त हो जाता है। नहीं न, तो फिर आप अपनी आंखें कब खोलिएगा। जरा, अपनी पलकें को इधर-उधर घुमाना तो शुरू कीजिए।

अब हमें किसी ने नहीं डरना है। अपने ख्वाब को हकीकत की हरी-भरी धरा पर इसे फिर से बोना है। मेरा सपना है कि इस नदी को फिर से जिंदा करूं, जो मेरे आलस और उदासी के कारण मरने को चली थी। मैंने कभी खुद से वादा किया था कि मैं अपने ब्लॉग पर दिल और दुनिया की बातें लिखूंगा। इस जज्बात में आज से नए रंग भरने की कोशिश कर रहा हूं। मेरा मुझसे वादा है कि अपने इस ख्वाब में रंग-बिरंगे रंग डालकर इसे नायाब और बेहतरीन रूप दूंगा।

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मास्टर ब्लास्टर सचिन का डबल धमाका

रिकॉर्डों के बादशाह की एक और छलांग। मुश्किल हालात में श्रीलंका के खिलाफ दोहरा शतक ठोका। कुल मिलाकर पांचवां दोहरा शतक। टेस्ट में 48 वीं सेंचुरी। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कुल 94 सेंचुरी (वनडे में 46 औट टेस्ट में 48 शतक)। यानी शतकों के सैकड़े से महज छह शतक दूर। पर रनों की भूख अभी भी बरकरार। सच में सचिन तो पुराने शराब की तरह और नशीले होते जा रहे हैं। प्रशंसकों के मुख से ‘क्रिकेट का भगवान’ यूं ही उवाच नहीं होता।

हर पारी और रन के साथ एक अनोखा रिकॉर्ड उनके साथ जुड़ रहा है। ऐसा लगता है कि वे रिकॉर्डों के शिखर पर खड़े हों। मास्टर ब्लास्टर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे विपक्षी टीम के अलावा खुद के खिलाफ भी खेलते हैं। यानी मैच दर मैच में उनकी भूख बढ़ती ही जाती है। गुणगान गाथा के लिए यूं तो दुनिया के हर कोने में सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट आलोचक मौजूद हैं। पर एक आम क्रिकेट प्रेमी के लिए तो हर शॉट ही दर्शनीय है। उन्हें बल्लेबाजी करते देख ऐसा लगता है कि हाथ की लोच के साथ गेंद बल्ले को छूकर बाउंड्री को क्रॉस कर रही हो। और मैदान में मौजूद हर खिलाड़ी उसे बस निहार रहा हो। मैदान में खिलाड़ियों को भेदकर शॉट मारना मंत्रमुग्ध करता है। हर शॉट को आप निहारते रहेंगे और पता ही नहीं चलेगा कि किस शॉट से उसने पारी की शुरुआत की और किससे खत्म।

वैसे तो उनकी कई खूबियां हमें लुभाती है। पर, एक बात जो उनमें खास है, वह है उनकी विनम्रता और सच्चाई। फील्ड के अंदर और बाहर वह हर प्लेयर के लिए आदर्श हैं। आप उन्हें रोजर फेडरर, पेले, ब्रैडमैन, कार्ल लुइस, पीट संप्रास जैसे महान खिलाड़ियों की अग्रिम पंक्ति में आंख मूंदकर शामिल कर सकते हैं। वैसे क्रिकेट का यह महान प्लेयर खुद टेनिस का बड़ा प्रशंसक है। खाली समय में आप उन्हें बिंबलडन का मैच का लुत्फ उठाते जरूर देखते होंगे। खैर सचिन का यह सफरनामा कुछ शब्दों में बयां करना मुश्किल है। एक प्रशंसक की तो यही दुआ है कि भारत का यह ‘कोहिनूर’ हमेशा क्रिकेटीय आकाशगंगा में चमकता रहे।

शनिवार, 5 जून 2010

बंदा ये बिंदास है......

कैसे हो भाई? एकदम बिंदास। किसी-किसी को झक्कास भी कहते सुना होगा। ऐसा लगता है कि बिंदास और झक्कास एक ही मां के दो पूत हैं। खैर, जब किसी के मुंह से यह सुनते हैं तो चेहरे पर एक स्माइल तैर जाती है। आखिर हो भी क्यों न! इस शब्द ने अपनी सीमा से परे होकर एक अलग खूबसूरती दी है। वैसे भी आजकल हर कोई बिंदास दिखना चाहता है।

आजकल इस बिंदास ने अपनी सीमा से परे भी अपना बसेरा खोज लिया है। देश-दुनिया की खबरें हो या फिर ग्लैमर की, आज हर जगह इसकी पूछ है। नौटंकी के मंच से मुंबइया सिनेमा के बड़े परदे तक इसकी धमक दिखती है। दूसरों को तो गोली मारिए, एक टीवी चैनल (यूटीवी बिंदास) ने तो अपना नाम भी बिंदास के साथ जोड़ रखा है। बात यहीं आकर खत्म नहीं होती है। अब तो बाबाओं के साथ उनके चेले भी बिंदास नजर आते हैं। टीवी पर दिखने-दिखाने को लेकर योग, ध्यान और प्रवचन का रूप अलग नजर आता है।

किंगफिशर के कैलेंडर की मांग आज भी खूब है। डब्बू रतनानी जैसे फोटोग्राफरों के सामने दिलकश मॉडलों की खूबसूरती कैमरे के एंगल के साथ ही पल छिन बदलती है। यदि आपके कमरे में किंगफिशर का कैलेंडर हो तो दोस्तों की महफिल में आपकी रंगत कुछ और होती है, ठीक बिंदास जैसी। कुछ ऐसे भी खुशनसीब हैं जो इसका नयनसुख दूसरों के घरों में देखकर बुझाते हैं। जिनका पॉकेट अनुमति नहीं देता ऐसे भाग्यवान इंटरनेट पर अपनी प्यास बुझाते हैं।

तसवीरों के दुनिया में बिंदास का अपना ही मजा और सजा है। मैग्जीन के कवर पेज पर आने के लिए खुद को न्यूड करना आजकल फैशन बन गया है। प्लेब्वॉय मैगजीन तो बस इसी के लिए जाना जाता है। यही बात पेटा (पीपुल फॉर द इथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स) के लिए फोटो शूट करने वाले हमारे फिल्मी कलाकारों के लिए भी आम है। पशुओं को बचाने के नाम पर खुद को नग्न करना इन फिल्मी हस्तियों के लिए बिंदासपन बन गया है।

सिगरेट की कश लेते और बगल चलती लड़कियों पर कमेंट करना भी आजकल बिंदासपन का हिस्सा बन गया है। यदि आप दोस्तों की महफिल में खुद को अनर्गल बातों से दूर रखते हैं तो यह आपकी कमी मानी जाती है। शराब और शबाब को इसने अपने आगोश में ले लिया है। लंबी-चौड़ी रास्तों पर तेज बाइक चलाना और यमराज को न्यौता देना इसकी एक अलग मिसाल बनकर उभरी है। क्या कोई मौत से दोस्ती कर बिंदास होना चाहेगा, कदापि नहीं। पर हमारे युवाओं को भला कौन समझाएं, वे तो इसी को बिंदास होना मानते हैं।

तो आप कब बिंदास बन रहे हैं?????

रविवार, 30 मई 2010

मुझे कुछ कहना है.....

मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय....। महान गायिका आशा ताई की मधुर स्वरों में गूंजती यह सुरीली तान हमें खुद के पास ले जाता है। जहां, हम स्वयं से बात कर सकते हैं। हां खुद से। मां की लोरी सुनते-सुनते सोना हमारी आदत थी। उनकी आंचल के तले चोरी-छिपे अमरूद और आम खाना हमारा अधिकार था। लगता है कि हमने उस लम्हों को कहीं छोड़ दिया है।

जीवन की इस आपाधापी में शायद हमने खुद को भी भूला दिया है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि कभी हम सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में बातें करें। उन सुरीली यादों को याद करें जिन्हें गांव की गलियों में गुल्ली-डंडा खेलते छोड़ आया था। पापा की मार से बचने के लिए झूठमूठ बीमार होने का बहाना बनाया था। बचपन में बड़ी हसरत थी कि जल्द से जल्द बड़ा हो जाऊं। बड़े होने के कई सारी फायदे दिखते थे। स्कूल जाने से छुट्टी मिलती और पापा की छड़ी से राहत। मैं देखा करता था कि पापा बड़े भईया को तो कुछ नहीं कहते थे। वे उनसे प्यार से बातें करते। वहीं, मेरी छोटी गलती पर भी डांट पड़ती।

आज तन से बड़ा हो गया हूं। जीवन के कई वसंत को पार कर चुका हूं। पर, मन में ढेर सारे सवाल लिए आज भी खुद के भीतर विचरण करता रहता हूं। कई सवाल मन में अनसुलझे हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर इन सवालों का जवाब कहां ढूंढू। कहीं न कहीं इसका जवाब तो मौजूद होगा। कहीं पढ़ा है कि हम-आप जो बोलते हैं वह ब्रह्मांड में मौजूद रहता है। तो क्या मन में उठे सवाल और इसके जवाब भी वहां मौजूद होंगे?

रविवार, 23 मई 2010

इंसान की कीमत कितनी?

हादसा, मौतें और मुआवजा। यह इंसान की नीयत बन चुकी है। हर हादसे के बाद मुआवजे का ऐलान होता है। यह घोषणा वसुधैव कुटुम्बकम की तरह अब भारतीय संस्कृति की पहचान बन चुकी है। पर, यहां भी मुआवजे की राशि कई जातियों में बंटी पड़ी है। यदि आप प्लेन दुर्घटना में अपनी जान गंवाते हैं तो आपके शोकाकुल परिजनों की तो बल्ले-बल्ले। पर, यदि आपकी हैसियत ट्रेन, बस या ऑटो में जान गंवानी की है तो मुआवजे की राशि भी खरीदे गए टिकट की कीमत से तय होती है।

राजधानी, शताब्दी और दुरंतो ट्रेनों में सफर करने वालों की कीमत अलग है। हां, यदि आप जनसाधारण एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में सफर करने वाले यात्री हैं तो रेलवे के मुआवजे में आपको छूट मिलेगी। यही बात, बस, ऑटो और टेंपो से सफर करने में लागू होती है। बस में सफर करते वक्त जान गंवाने पर आपको थोड़े-बहुत पैसे मिल जाएंगे। पर, मोटर साइकिल, ऑटो या टेंपो से मौत को गले लगाने पर विरले ही इसका हकदार बन पाते हैं।

संयोग देखिए कि मुआवजे की राशि भी अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित है। मंगलौर हवाई दुर्घटना में शोकाकुल परिजनों को प्रत्येक मृतक के हिसाब से ७६ लाख रुपए की भारी-भरकम राशि मिलेगी। इसके अलावा प्रधानमंत्री कोष और प्रदेश सरकार की मदद अलग शामिल है। मतलब साफ है कि जिसने हादसे में अपनी जान गंवाई, वे तो भगवान के प्यारे हो गए। पर पैसे का भोग कोई और करेगा। किंतु, ये दुनिया का शाश्वत नियम है कि कमाता कोई और है और भोगता कोई और।

अरे भाई आप इस मुगालते में मत रहिए कि मुआवजे की घोषणा के साथ ही लाखों रुपए का चेक आपके घर पर कोई डाकिया लेकर देगा। अब आपको साबित करना होगा कि मरा हुआ आदमी सचमुच ईश्वर को प्यारा हो गया है। कहीं उसका भूत फिर से जिंदा न हो जाए, इसके लिए सरकारी बाबूओं को कोई पुख्ता सबूत देना होगा। फिर शुरू होगा लालफीताशाही का कुचक्र। इसमें आप ऐसे पिसेंगे कि मृतक की आत्मा भी कराह उठेगी!

पर, मुआवजों का खेल तो सालों से चलता रहा है। यह आज भी बदस्तूर जारी है। बस राज कपूर की फिल्म ‘कल आज और कल’ की तरह। हां, यहां समय के परिपेक्ष्य में मंच के किरदार जरूर बदल जाते हैं।

शनिवार, 22 मई 2010

आईएसआई का बढ़ता मकड़जाल

बहुत दिनों पहले आमिर खान अभिनीत ‘सरफरोश’ फिल्म आई थी। इसमें आईपीएस ऑफिसर राठौड़ (आमिर खान) को देश के अंदर मौजूद आतंकी गतिविधियों में लिप्त लोगों से लोहा लेता दिखाया गया है। साथ ही पड़ोसी मुल्क के लोग भी हमारे असंतुष्ट देशवासियों को अपनों के विरूद्ध मदद करते हैं। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई नक्सलियों को हथियार और पैसे की मदद देकर देश में तबाही मचाने को उकसाते हैं।

कितनी दुख की बात है कि परदे पर दिखने वाले ये काल्पनिक पात्र सच्चाई में आज भी हमारे देश में मौजूद हैं। अभी तक सुरक्षा और खुफिया अधिकारियों को संदेह था कि आईएसआई हिंदुस्तान में विघटनकारी तत्वों को बढ़ावा दे रही है। पर, मेघालय के सक्रिय आतंकी संगठन जीएनएलए के प्रमुख आर संगमा का बयान हमें चौंकाता है। संगमा स्पष्ट करते हैं कि आईएसआई ने उन्हें भारतीय सुरक्षाबलों से लड़ने में मदद की पेशकश की थी। हालांकि मदद की लेनदेन को लेकर दोनों में क्या बातचीत हुई, इसका खुलासा करने से उन्हें परहेज है।

छत्तीसगढ़ में हालिया हुए नक्सली वारदातों से यह साबित हुआ कि देश के अंदर मौजूद दुश्मनों को हमारे पड़ोसी मुल्क का वरदहस्त है। इन नक्सलियों को सिर्फ हथियार और पैसे की मदद नहीं मिल रही है। बल्कि, उन्हें सुनियोजित तरीके से प्रशिक्षित किया जा रहा है। पता नहीं, हमारे देशवासी कब चेतेंगे।

अपने ही देशवासियों के खिलाफ हथियार उठाना कतई सही नहीं है। और फिर मारकाट मचाकर तबाही फैलाना कहां का न्याय है? क्या यह सचमुच अधिकार की लड़ाई है? दुख तो तब होता है जब हमारे कुछ राजनेता राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए इन हत्यारों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। महज चंद वोटों के लिए लोकतंत्र के ये रहनुमा लोकतंत्र की हत्या करने पर उतारू हैं।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कौन हूं मैं....नक्सली तो नहीं!

मैं एक हिंदुस्तानी...पहचाना? नहीं न। मेरे कई और नाम हैं। मसलन भारतीय, इंडियन....। मुझे किसी भी नाम से पुकारो, आत्मा और मन तो वही रहेगा। पर आज कुछ अपने ही भाई मुझे पहचानने तक से इनकार कर रहे हैं। मैं उनकी नजरों में नक्सली, माओवादी, विद्रोही... और न जाने से क्या बन चुका हूं। वे मुझे हत्यारा, उपद्रवी और जाने क्या क्या कह रहे हैं। क्या कोई अपने भाई की हत्या कर सकता है? नक्सली....मैं जन्म से ही नक्सली तो नहीं था ....मुझे ये नाम किसने दिया आखिर अपने ही देशवासियों के खिलाफ जंग का मैदान मेरे लिए किसने तैयार किया? आखिर वह कौन था, जिसने मुझे हथियार उठाने पर मजबूर किया? आज मेरे घर में रोटी का टुकड़ा भले ही न मिले, गोली और कारतूस जरूर मिलेंगे। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है?

मेरे पूर्वजों ने भी अपनी मिट्टी के लिए कसमें खाई थी। आजादी के आंदोलन में मैंने भी कम खून नहीं बहाया। कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ी। जेल के बाहर और अंदर मैंने भी अंग्रेजों की लाठी खाई। सब कुछ खुशनुमा था कि एक दिन मैं नक्सली करार दे दिया गया। पल भर को लगा सपना है लेकिन हकीकत में ही मेरे अपने बेगाने हो चुके थे। रोटी की लड़ाई कब अस्तित्व का हिस्सा बन गई, पता ही नहीं चला।

कभी मेरे भी आपकी ही तरह ढेर सारे अरमान थे। खुले आकाश में उन्मुक्त उडऩा और ढेर सारे सपने देखना मेरी भी चाहत थी। हर भाई-बहन के दिल में यही जज्बा था कि वो भी हिंदुस्तान का सच्चा सिपाही बने। पर, मेरा यह अरमान कुछ हुक्मरानों को अच्छा नहीं लगा। लोगों के शव पर राजनीति करने वालों ने मुझे 'कातिल’ बना डाला। आखिर क्यों बना मैं कातिल और सबकी नजरों में नक्सली। इसका भी एक जायज और ठोस कारण है।

आधुनिकता की अंधी दौड़ और कुंठित हुक्मरानों ने मेरे घर और जंगलों पर डाका मार कर मुझे बेघर कर दिया। पहले मेरा घर छीना और फिर जंगल। अब मेरे घर की जगह चार-छह लेन की सड़कें जगमगाती हुई मुंह चिढ़ाती है। दौड़ते बस-ट्रकों का काफिला मुझे अचंभित तो करता है पर सुहाता नहीं। मेरे बच्चे सड़क पर इस डर से कदम नहीं रखते की कहीं कोई ट्रक कुचल न डाले। मेरी रोजी-रोटी जंगल से चलती थी। जंगल की लकडिय़ों से हमारे घर का चूल्हा जलता था। और एक दिन सरकार ने इसे भी अपने अधिकार में लेकर मुझे बेसहारा कर दिया।

मैंने रोटी मांगी, उन्होंने मुझे कटोरा थमा दिया। मैंने अपने बच्चों के लिए शिक्षा मांगी तो मेरी जमीन ही छीन ली। मैं दाने दाने को मोहताज हो गया, लेकिन सरकार की आंख नहीं खुली। मैं तंग आ गया और सरकार को ही बदलने का सपना देखने लगा। असल में विद्रोह की आड़ में वो अपना ही उल्लू सीधा कर रहे थे। नए राज्यों के नाम पर उन्होंने हमारे परिवार में फूट कराई। मेरे भोलेपन का नाजायज फायदा उठाकर कभी गुरूजी, कभी महंत बनकर हमारा शोषण किया। किसी ने बताया कि सरकार को बदल डालो तो हालात भी बदल जाएंगे। भाई बहनों को साथ लेकर मैं जंगल में आ गया और बारूदी सुरंगें खोदने लगा। ये जाने बिना कि कभी इन सुरंगों का शिकार मेरे मासूम बच्चे भी हो सक ते हैं।

मैं ये विद्रोह त्याग सकता हूं, मैं भी सामान्य और खुशहाल जिंदगी जीना चाहता हूं. बशर्ते सरकार इसका आश्वासन दे। मैं जन्म से ही नक्सली नहीं हूं और यही कारण है कि इतना होने के बाद भी खुशहाल जीवन के सपने देखना नहीं भूला हूं। आपसे अपील है कि मुझे नक्सली कहकर न पुकारें....मैं भी आपकी तरह जीना चाहता हूं। अपनी जमीन पर अपने खेत पर।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

गुम हो गया खाकी वर्दी में सजा डाकिया

बदलते रिश्ते और समय के साथ-साथ अब सब कुछ बदल गया है। यकीनन इस दौर में हमने खुद को बदलने के खातिर पता नहीं क्या-क्या बदल डाले। इसका अहसास हर पल होता है। पर दिल मोबाइल और इंटरनेट से छुट्टïी पाए तो सही! मसलन, अब खाकी वर्दी में सजा डाकिया नजर नहीं आता और अगर भूले भटके दिख भी जाए तो पहले जैसी खुशी नहीं होती।

एक समय था जब हर घर को डाकिया कहलाने वाले मेहमान का बेसब्री से इंतजार होता था। दरवाजे पर उसके कदमों की आहट घर के लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट ला देती थी। लेकिन आज सूचना क्रांति के इस दौर में यह डाकिया 'लुप्त ’ होता जा रहा है। अब तो डाकिया नजर ही नहीं आता, जबकि पहले उसकी आहट से लोग काम छोड़ कर दौड़ पड़ते थे।

डाकिया के आते ही खुशी और गम दोनों का पिटारा एक साथ खुलता था। हर चि_ïी में किसी न किसी के लिए ढेर सारे आशाओं का सौगात रहता था। बूढ़ी मां दरवाजे पर इस आस पर लाठी लेकर बैठी रहती कि शायद इस बार बेटा कुछ रुपए भेज दे। तो घूंघट में चेहरे छुपाए महिलाएं अपने पतियों का बस एक अक्षर देखने को बेकरार रहती। डाकिया के दरवाजे पर आते ही आंगन में कौतूहल मच जाती। हर किसी के मन में यही आस रहती, शायद इस बार मेरा कोई डाक आया हो। कभी-कभी तो डाकिया दरवाजे के आगे से ऐसे गुजर जाता मानो हमें जानता ही न हो। पर मन को कैसे समझाएं। तब भी साईकिल के पीछे दौड़ते हुए हम पूछ ही बैठते कि क्या हमारा कोई डाक आया है! सर हिलाने से हमें जवाब मिल जाता था।

सूचना क्रांति के इस दौर में कागज की चिट्ठी-पत्री को फोन, एसएमएस और ईमेल संदेशों ने कोसों पीछे छोड़ दिया है। कुछ देशों में चार फरवरी को 'थैंक्स अ मेलपर्सन डे ’ मनाया जाता है। पर, जिस तेजी से अत्याधुनिक संचार सेवा का प्रसार हो रहा है उससे लगता है कि बहुत जल्द ही डाक और डाकिया केवल कागजों में सिमटे रह जाएंगे। सूचना क्रांति के इस दौर में घटते महत्व का अहसास डाकियों को भी है। अब जो डाक आ जाती है, वह बांट देते हैं। पहले की तरह अधिक डाक अब नहीं आती। अब तो घरों के सामने डिब्बे लगे रहते हैं, उनमें ही डाक डाल दी जाती है। इनाम तो अब सपना हो गया है।

मुंबई में अराजकता का आलम

मुंबई में शिवसेना और मनसे की तानाशाही चरम पर है। 'मराठी मानुष ’ के स्वयंभू ठेकेदार बाल ठाकरे ने सभी लोगों को चेताया है कि उनकी हर हुक्म की तामील हो या फिर परिणाम भुगतने के लिए सभी (गैर मराठी!) तैयार रहें। आखिर एक तानाशाह से इससे अधिक क्या उम्मीद की जा सकती है? भले ही उनकी खुद की पैदाइश महाराष्टï्र से बाहर हुई हो।

सबसे अजीब बात यह है कि दुनिया के सबसे बड़े (कथित) लोकतांत्रिक देश में यह तानाशाही है और हर कोई सर झुकाकर इसे भोगने को मजबूर है। यह पहली बार नहीं है कि ठाकरे परिवार ने इस तरह का दुस्साहस किया हो। सिर्फ 'मराठी अस्मिता ’ के नाम पर रोटियां सेकने वाले इन नेताओं की मंशा से हर कोई वाकिफ है। मुंबई में ताजा हालात देखकर तो यही लगता है कि ठाकरे की बात नहीं माननेवालों का वहां कोई खैर नहीं।

आईपीएल-3 में विदेशी खिलाडिय़ों को शामिल करने पर कोलकाता नाइटराइडर्स के मालिक शाहरुख खान ने जुबान की क्या थोड़ी सी ढील दी, उनकी तो शामत ही आ गई। तुरंत तुगलकी फरमान जारी हुआ कि मुंबई के सभी सिनेमाघर उनके आगामी फिल्म 'माई नेम इज खान ’ को रिलीज न करें। फरमान पर तत्काल अमल हुआ और कई सिनेमाघरों ने फिल्म के पोस्टर हटा दिए या फिर फाड़ डाले। यह जानते हुए भी कि फिल्म रिजील नहीं करने पर निर्माता और डिस्ट्रीब्यूटर के साथ-साथ उन्हें भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। फिर भी, ये लोग खुद के रोजी-रोटी पर लात मारने को मजबूर हैं।

क्या बाल ठाकरे यह नहीं जानते कि 'सामना ’ का हर शब्द किसी न किसी की रोटी छीन लेता है? पर ठाकरे को भला इससे क्या जरूरत! राजनीति मंच के वे काफी ही मंजे खिलाड़ी हैं। वे जानते हैं कि शरीर भले ही साथ नहीं दे, जुबान की लड़ाई में वे अपने विरोधियों पर वार करते रहेंगे। सोनिया और राहुल गांधी पर निशाना साधकर भले ही वो अपना राजनीतिक हित साध लें, पर इससे आम मराठियों का कोई हित नहीं होने वाला है।

महाराष्टï्र और देश से बाहर उनकी छवि जो बनी है, इसकी भरपाई आखिर कौन करेगा? सिर्फ सत्ता की राजनीति करने वाले ये ठाकरे नहीं जानते कि पिछले कुछ चुनावों से हर बार इसी मराठियों ने उन्हें ठुकराया है। हर बार शक्ति क्षीण होने के बावजूद ठाकरे सिर्फ गुरर्राकर अपनी भड़ास निकालते हैं। सच में सत्ता का एक बार स्वाद चखने के बाद उसे फिर पाने को आतुर ये कथित रहनुमा कब तक देश को जलाते रहेंगे?

रविवार, 31 जनवरी 2010

क्या आप 'नेताजी’ बनेंगे?

सामने लजीज व्यंजन और जी न लपलपाए। ऐसा तो हो नहीं सकता। कुछ ऐसा ही स्वाद सत्ता का होता है। हर कोई चखना चाहता है, और खासकर जब राजनीति हमारी जीन में बसी हो। घर से लेकर देश-दुनिया की राजनीति में इतने सारे पेंच हैं कि आप कभी भी इससे अछूते नहीं रह सकते। इस घालमेल में हर किसी की जुबान पर एक ही बात होती है कि अरे यार पूछो मत, यहां की राजनीति बहुत ही गंदी है। भले ही यहां आपके नफा-नुकसान पर इसकी परिभाषा बदलती हो। यह हमारा स्वभाव बन गया है कि हर कोई इसका स्वाद लेना चाहता है, भले ही रास्ता नैतिक हो या अनैतिक।

इस सबके बीच जब देश की राजनीति की बात की जाए तो बहुत ही कोफ्त होती है। यहां बुढ़ापे को भी जवानी-प्रौढ़ावस्था में देखा जाता है। यदि आप राजनीति में 40 साल के हैं तो आपकी तरुणाई शुरू होती है। जो जितना बूढ़ा होता है, उसकी अहमियत बढ़ती रहती है। हर वसंत के साथ आपकी महत्वाकांक्षा भी उतनी ही तेजी से छलांग मारती है।

इसमें नेताओं का कर्मभूमि बदलते ही उतनी ही तेजी से सुर और नीति भी बदल जाता है। यदि पार्टी सत्ता में है तो यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है। इसकी नीति, चाल और चरित्र आंद मूदकर अनुकरणीय है। सत्ता की मलाई जितना खा सके, उतना ही कम है। पर, हार के साथ ही पार्टी की छीछलेदारी शुरू हो जाती है। और बिखराव की इस दौड़ में खुद के साथ कुछ छुटभैये टाइप के नेता नेताजी के आगे-पीछे दुम हिलाते नजर आते हैं। इन नेताओं की फौज ऐसे मक्खियों की तरह होती है, जिन्हें किसी मिठाई पर अधिकार जमाने के लिए भिनभिनाने से तनिक भी परहेज नहीं है।

इन नेताओं की योग्यता किसी स्कूल या कॉलेज में आंकी नहीं जाती। आप कितने बड़े दबंग और लूट खसोट वाले के तौर पर जाने जाते हैं, यही आपकी पहचान है। या फिर, चुनाव के वक्त पार्टी के खजाने में कितने हरे नोट फेंकने में माहिर और शातिर हैं। हमारी संस्कृति में दान एक पवित्र शब्द है, जिससे किसी भी दानवीर का अहम व्यक्तित्व सामने आता है। इनमें महायोद्धा दानवीर कर्ण के अलावा ऐसे ऋषि-मुनि शामिल हैं, जिनकी महत्वता सिर्फ नाम से जाहिर होती है।

पर अफसोस, इस कलयुगी दुनिया में दान शब्द कहीं विलोम हो गया है। इस पर चंदा और जबरन वसूली जैसे क्लिष्टï दायक झोपड़पट्टïी बन गया है। आजकल हर दलों में एक कोषाध्यक्ष पद का सृजन किया गया है, जो ब्लैक-व्हाइट धन का हिसाब-किताब रखता है। ये भद्रजन खुद और पार्टी के लिए कितना चंदा जुटा पाते हैं, यही उनकी योग्यता और पहचान बन गई है।