रविवार, 21 दिसंबर 2008

कोई मेरी भी शादी करा दो......

आजकल कुंआरों की जान आफत में है। लड़कियों की तादाद घटती जा रही है और उनकी मुश्किलें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। सरकारी आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो देश में एक हजार की आबादी पर मात्र ९२७ महिलाएं हैं। मतलब अभी भी ७३ अंकों का भारी फासला है। सैकड़ा में यह तुलना तो कम लगता है, पर जब इसे देश की एक अरब की आबादी से तुलना करें तो चिंता की लकीरें बढ़ जाती है। पर यहां भी खुश होने की कोई वजह नहीं दिखती। इन ७३ अंकों में से तो कई हमारी-आपकी दादी-नानी उम्र की होंगी। तो कई मामी, चाची, फूआ के उम्र की। कई ने तो अभी यौवन की दहलीज पर भी कदम नहीं रखा होगा। उस हालात में हमारे कुंआरें भाई-दोस्त मन से रोते हुए चेहरे पर मुस्कान नहीं बिखेरेंगे तो भला क्या करें। पर मन रोता है तो दिल भी खूब रोता है। मेरे एक प्रिय साथी भी कुछ ऐसे ही हालात से गुजर रहे हैं।

मेरे साथी राजस्थान के रहनेवाले हैं। जीवन के २७ बसंत देख चुके हैं। पर शादी के नाम लेते ही अगल-बगल झांकने लगते हैं। ऐसी बात भी नहीं है कि वे शादी करना नहीं चाहते या फिर उन्हें इसकी कोई इच्छा नहीं है। खाते-पीते घर से ताल्लुकात रखते हैं और कमाऊ भी हैं। इतनी सी उम्र में थोड़ी सी पेट निकल आया है। उम्रदराज दिखने के लिए उन्होंने अब मूछें भी रखनी शुरू कर दी है। पर बेचारे की अभी तक शादी नहीं हो पाई है। वो शादी भी करना चाहते हैं, पर करें तो आखिर करें क्या? उनसे बड़े एक भाई हैं और एक छोटी बहन। पर दोनों की शादी जो नहीं हुई है अब तक। बहन की शादी तो तय भी हो गई है, पर बड़े भाई की कुंडलियां कई बार मिलते-मिलते रह जाती है। हर बार जब भी मैं उनसे इस मुद्दे पर चर्चा करता हूं तो बताते हैं कि अबकी बार भाई की शादी तो कर ही डालूंगा। और इसके बाद फिर अपनी तो बल्ले-बल्ले.....। पर ब्रह्मा की लकीरों को भला कोई पढ़ पाया है क्या? पुष्कर मेले में उन्होंने कई बार दक्षिणा देकर कुंडलियां पढ़वाने की कोशिश की, पर शायद अभी उन्हें कुछ साल इस खुशी से मरहूम रहना पड़ेगा।

यह कहानी किसी एक श2स की नहीं है, बल्कि हमारे देश में हजारों ऐसे नौजवान हैं जो किसी दुल्हन की बाट जोह रहे हैं। विशेषकर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में यह समस्या विकराल बन चुकी है। इस समस्या का निदान तो निकालना बहुत जरूरी है। समाज विश्लेषकों की राय मानें तो इसका हल हमारी मानसिकता को लेकर है। यदि हम मन से बेटे-बेटी का विभेद हटा लें तो यह मुश्किलें खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी। इसलिए प्रिय देशवासियों, मेरे दोस्त पर जरा रहम खाओ और उनके लिए ही अपने परिवार व समाज से बेटे-बेटियों का विभेद खत्म करने में जुट जाओ।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

'द वाल ’ में दरार नहीं

मोहाली टेस्ट में शतकीय पारी के बाद भले ही राहुल द्रविड़ ने सहजता से बल्ले से ड्रेसिंग रूम के साथियों और दर्शकों का अभिवादन किया हो। पर उनकी यह शतकीय पारी उनके लिए कितनी अहमियत रखता है, उनके अलावा इससे ज्यादा कोई भी नहीं जानता। द्रविड़ आरंभ से ही भारतीय क्रिकेट टीम के धुरी रहे हैं। अजहरुद्दीन की कप्तानी में लॉड्र्स के मैदान में उन्होंने अपने क्रिकेट कैरियर का शुरुआत किया। और तब से वे अन्य 'खिलाडिय़ों ’ के अपेक्षा टीम के लिए खेलते रहे। इसलिए उन्हें कभी 'टीम मैन ’ का खिताब मिला तो कभी 'द वाल ’ का।

द्रविड़ ने सदा अपनी काबिलियत और प्रदर्शन के बूते टीम को संकट से उबारा। कुछ खिलाडिय़ों की एक-दो पारियां खास मानी जाती है। पर यदि द्रविड़ के कैरियर पर निगाहें डालें तो यह कहना मुश्किल होता है कि उनकी कौन सी पारी सर्वश्रेष्ठï है। लक्ष्मण के साथ ईडेन गार्डन में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेली गई १८० रनों की पारी। या फिर पाकिस्तान दौरे में २७० रनों की पारी खेलकर एक नई ऊंचाई को हासिल करना। एडिलेड में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ पहली पारी में दोहरा शतक और दूसरी पारी में नाबाद पचासा ने टीम इंडिया को जीत का स्वाद चखाया था। वेस्टइंडीज दौरे में जहां सभी बल्लेबाज दहाई का आंकड़ा पाने को तरस रहे थे, वहीं द्रविड़ ने अकेले मैदान पर डटकर गेंदबाजों का सामना किया। द्रविड़ के खाते में कई शतकीय पारी और रिकॉर्ड दर्ज हैं। वे एक ऐसे अनमोल खिलाड़ी रहे हैं, जिन्होंने टीम के लिए कप्तानी, विकेटकीपिंग, बॉलिंग और बल्लेबाजी की। और फील्डिंग में तो उनको सदा महारत हासिल रही। वे एक ऐसे कप्तान रहे, जिन्होंने इंग्लैंड के सफल दौरे के बाद कप्तानी छोडऩे की घोषणा की। क्या किसी कप्तानी में इतना साहस होगा कि वे सफलता के मुकाम पर पहुंचकर टीम का कमान किसी और को सौंप दे।

और जब धोनी के नेतृत्व में टीम घरेलू मैदान पर शानदार प्रदर्शन कर रही है। तो सभी क्रिकेट विश्लेषकों की निगाहें विदेशी दौरे पर होगी। और यह बात हर कोई जानता है कि विदेशी दौरे पर 'विश्वसनीयता की छाप ’ द्रविड़ की शर्ट पर ही लग सकती है।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

जरा याद उन्हें भी कर लो...

ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी।
ये वो लफ्ज हैं जिन्हें सुनकर हर भारतीय की आंखें नम हो जाती है। स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने इस गीत को दर्दभरी आवाज दी तो हमारे प्रिय चाचा नेहरू भी अपने आंसू नहीं रोक पाए थे। कुछ ऐसी ही ताकत थी जन-जन के कवि प्रदीप की। उनकी लेखन शक्ति ने हर हिंदुस्तानी के दिल में जोश-उमंग भर दिया। ११ दिसंबर २००८ को प्रदीप की १०वीं पुण्यतिथि थी। इसी अवसर पर हम आम भारतीय इस ओजस्वी कवि का नमन करते हैं।
कवि प्रदीप का जन्म १९१५ में मध्य प्रदेश में हुआ था। उनका असली नाम था रामचंद्र द्विवेदी। बचपन में ही उनमें लेखन और कविता में गहरी रुचि थी। बाद में उन्होंने मायानगरी मुंबई में किस्मत आजमाने के लिए दस्तक दी। शुरुआती संघर्षों के बाद उनकी किस्मत खुली १९४३ में आई फिल्म 'किस्मत ’ से। 'आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो॥ दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदोस्तान हमारा है॥। ’ यह गाना उस दौर में बहुत ही लोकप्रिय हुआ और कवि प्रदीप अपना सिक्का जमाने में कामयाब रहे।
कहते हैं कि अंग्रेज इस गीत से इस कदर परेशान हो गए कि उन्होंने कवि प्रदीप के खिलाफ वारंट निकाल दिया था। पर गानों की लोकप्रियता का कहना ही क्या। दर्शकों की फरमाइश पर सिनेमा हॉल में फिल्म की रील रिवांइड कराकर फिर से इसे सुनाया जाता था। १९५४ में 'जागृति ’ के गानों ने धूम मचा दी। इस फिल्म के गाने सिर्फ स्वदेश में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान में भी काफी लोकप्रिय हुए। पाकिस्तान में 'जागृति ’ की रीमेक 'बेदारी ’ बनी तो, इसमें 'देश ’ की जगह 'मुल्क ’ कर दिया गया। और यह गीत बन गया.. 'हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के ’।
कुछ इसी तरह 'दे दी हमें आजादी ... ’ का पाक संस्करण कुछ यूं आया। 'यूं दी हमें आजादी कि दुनिया हुई हैरान, ऐ कायदे आजम तेरा एहसान है एहसान ’। 'बेदारी ’ फिल्म का एक और गाना बन गया 'आओ बच्चे सैर कराएं तुमको पाकिस्तान की, जिसकी खातिर हमने दी कुर्बानी लाखों जान की ’।सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए कवि प्रदीप को १९९८ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। सच में कवि प्रदीप आज हमारे बीच में नहीं हैं, पर प्रदीप की लेखन शक्ति की लौ आज भी हर भारतीय के दिल में प्रज्वलित है।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

'द्रोण' का 'किडनैप'

शुक्रवार का दिन. मैदान में तीन योद्धा. हर योद्धा के पास अलग-अलग रणनीतिक कौशल हैं. निर्णायक कलाबाजी में कौन बाज़ी मारेगा, कोई नहीं जानता. एक ओर जूनियर बी अभिनीत 'द्रोण' है तो दूसरी और युवा दिलों के धड़कन इमरान खान की 'किडनैप' . दोनों की लड़ाई को दिलचस्प बनाने के लिए पड़ोसी मुल्क की 'रामचंद्र पाकिस्तानी' की मदद ली गयी है. महासंग्राम शुरू हो गया है. पहला दिन और फर्स्ट शो. और थोड़ी देर में खत्म हो गया सारा सस्पेंस. 'किडनैप' हिट रही, 'द्रोण' बुरी तरह पिटी और 'रामचंद्र पाकिस्तानी' को अपने क्लास के दर्शक मिले.
मीडिया ने किडनैप को सराहा. इमरान खान और मुन्ना भाई यानी संजय दत्त की खूब वाहवाही हुई. पर सबसे ज्यादा सुर्खियाँ बटोर ले गई 'यहाँ' मूवी से करियर की शुरुआत करने वाली hott गर्ल मीनिषा लाम्बा ने. बिकनी पोज में सीन देकर युवाओं का दिल चुरा ले गई वो. 'जिंदा' मूवी की थीम से मिलती-जुलती 'किडनैप' को पहले दिन खूब दर्शक मिले. पर द्रोण में दिनकर की उक्ती काम कर गई. 'सौभाग्य न सब दिन सोता है, देख आगे क्या होता है....' अभि के लिए दुर्भाग्य बनकर आई. कहाँ वे कृष के नायक रहे ऋतिक रौशन की तरह एक महानायक बनने का ख्वाब देख रहे थे, पर वे 'बस इतना सा ख्वाब' की तरह ख्वाब ही देखते रहे. प्रियंका चोपडा उनकी अंगरक्षक बनी. पर फ़िल्म में प्रियंका अंगरक्षक कम, शरीर की नुमाइश ज्यादा करते दिखी. बाकी का कचूमर केके मेनन ने दुष्टात्माओं का मसीहा बनकर कर दिया.
पर कहते हैं ना, दो बिल्ली की लडाई में तीसरा कोई कैसी बाजी मार लेता है, कोई इनसे सीखे. दोनों मूवी में रामचंद्र पाकिस्तानी दिल को सकूं देती है. एक सच्ची घटना पर आधारीत मूवी दिल को स्पर्श करती है. नंदिता ने अपना बेहतरीन अभिनय दिया है. खैर द्रोण, किडनैप और रामचंद्र पाकिस्तानी की जंग जारी है और ये अगले हफ्ते तक जारी रहेगी...

शनिवार, 27 सितंबर 2008

कितने मरे...

...बम ब्लास्ट और दिल्ली दहल उठी. महरौली के सराय मोड़ मार्केट में दो धमाके हुए. एक बार फिर सुरक्षा एजेंसियों की पोल खुली. दो सप्ताह के भीतर दो ब्लास्ट कर आतंकियों ने अपने मंसूबे दिखा दिए. सरकारी आंकडों पर नजर दे तो इस धमाके में दो लोगों की मौत हुई और करीब दो दर्जन लोग घायल हुए. यह धमाका शनिवार, तारीख २७ सितम्बर २००८ को हुआ. शुरूआत में लोगों को लगा की यह हादसा गैस सिलिंडर के फटने से हुआ. पर यह जल्द ही स्पष्ट हो गया कि यह किसी सुनियोजित आतंकी साजिश का नतीजा है. खैर ब्लास्ट के बाद मरने वालों की संख्या को लेकर अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया है.
पहली बार जब ख़बर आयी तो एक टीवी चैनल ने मृतकों की संख्या चार बताई तो किसी ने तीन. दूसरे चैनल पर भी मृतकों की संख्या को लेकर इक-दो का अन्तर रहा. सभी चैनल वालों का न्यूज़ कार्यक्रम फुस्स हो गया और बाज की तरह वे इस ब्लास्ट वाली न्यूज़ पर झपट पड़े. मृतकों और घायलों के लेकर सभी चैनल वालों में होड़ लगी रही. उस समय कोई अख़बार भी नहीं छप सकता था इसलिए अख़बार के इन्टरनेट संस्करण में इसको लेकर संशय बनी रही. कुछ लोग तो आँख मूंदकर मरने वालों की संख्या चार तक लेकर पहुँच गए. बाद में भी मृतकों की संख्या को लेकर कयाशबजी चलती रही. आखिरकार सरकार ने मरनेवालों की संख्या दो बताई. और सभी टीवी और अखबारों ने मृतकों की संख्या दो बताकर इतिश्री कर दिया. पर एक सवाल अनुतरीत ही रह गया कि आख़िर इस ब्लास्ट में कितने मरे????????????

शनिवार, 13 सितंबर 2008

सफर

सफर में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में, तुम निकल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम संभल सको, तो चलो।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

चुप रहो कर्स्टन भईया

हमारे कर्स्टन भईया बोले कि माही यानी धोनी महोदय अब टीम इंडिया के कप्तान बनने लायक हो गए हैं। इसलिए उन्हें यह ताज सौंप देना चाहिए। पर ये क्या, कर्स्टन भईया के बोलते ही भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड गुस्से शेर की भांति गुर्रा उठा. उसने तत्काल तुगलकी फरमान जारी कर दिया. बोर्ड के अधिकारी निरंजन शाह गुर्राए हे कर्स्टन भईया. ज्यादा मत बोलो आप. नहीं तो ठीक नहीं होगा आपके लिए. अपने सीमा से बाहर बोलिएगा तो हमसे बुरा कोई ना होगा.
आख़िर शाहजी बोले भी तो क्यों नहीं। आख़िर हमारे स्टार खिलाड़ियों के खिलाफ कौन बोल सकता है। खासकर बात जब स्टार चौकरी खिलाड़ियों की हो तो फिर हिम्मत किसकी बनती है. कर्स्टन भईया का बस इतना ही दोष था कि उन्होंने टीम में पिछले रिकॉर्ड की अपेक्षा अभी के प्रदर्शन को टीम में आने का पैमाना बताया था. वे भूल गए हम इंडियन ज्यादा स्टार वाले खिलाड़ी को महत्व देते हैं.
बात यदि सचिन की हो तो पाँच स्टार. और फ़िर बात सौरभ-राहुल की हो तो तीन स्टार. दो स्टार वाले श्रेणी में लक्ष्मण और कुंबले वाले खिलाड़ी आते हैं. खैर वही हुआ और हमारे कर्स्टन भईया ने अपनी जुबान बंद करने में ही भलाई समझी. अब फिर से वही स्टार से भरी टीम इंडिया ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों के खिलाफ खेलेगी. हम एक-दो टेस्ट सीरीज़ हारेंगे और कप्तानी पर बहस होगी. पर इससे टीम को कितना फायदा होगा, कोई नहीं जानना चाहता. आख़िर क्यों? है इसका जवाब किसी के पास...

बुधवार, 13 अगस्त 2008

खूब लड़ी साइना.....

बीजिंग ओलंपिक में एक और पदक की आश लगाए बैठे भारतीय उम्मीद को उस समय जबरदस्त झटका लगा, जब नई भारतीय सनसनी साइना नेहवाल (टेनिस वाली सानिया मिर्जा नहीं) bandminton के एकल मुकाबलों से बाहर हो गयी। अन्तिम चार के मुकाबले में साइना को इंडोनेशिया की मारिया ने २६-२८, १४-२१, १५-२१ से मात दी। इस हार के साथ ही साइना का विजय अभियान थम गया और भारतीय उम्मीद की किरण बुझ गयी। ये आंकडें भले ही हार-जीत का गाथा (मार्च पोस्ट के दौरान सानिया मिर्जा द्वारा साडी न पहनने पर उठे बवाल) लिख गया हो, पर ओलंपिक अभियान में साइना ने सिर्फ़ तीन सेट ही गंवाया.
वैसे बीजिंग ओलंपिक में साइना से आलोचकों को कोई खास उम्मीद नहीं थी। पर जिस तरह उसने प्रारंभिक मुकाबलों में अपने से शीर्ष वरीय खिलाड़ियों को मात दी, उससे भारतीयों की उम्मीद की किरण तो जग ही गयी थी। पर अनुभव और पॉवर की कमी के कारण आखिरकार साइना को हथियार डालने पड़े। पर उसने आसानी से हार नहीं मानी. उसने दमख़म से अपनी चुनौती पेश की, मैदान पर पूरा जोर लगाया और अंततः एक खिलाडी की तरह हार को गले लगाया.
यह उन खिलाड़ियों के लिए एक सबक और प्रेरणा बन सकती है, जिन्होंने बिना लड़े ही मैदान में हथियार डाल दिए। मसलन भारतीय सनसनी सानिया मिर्जा को ही लें। विज्ञापनों और सरकारी अनुदानों की बात करें तो वे इसे पाने वालों में टॉप-१ का खिताब पा सकती है। भारतीयों को उनसे उम्मीदें भी बहुत थी, पर आखिरी समय में हाथ की चोट के कारण सानिया टूर्नामेंट से हट गयी। टेनिस के एकल मुकाबले में तो उम्मीद तो टूटी ही, डबल्स मुकाबलों में भी टिमटिमाती हुई आशा बुझती नज़र आयी.
अब सानिया कुछ दिनों बाद इंडिया लौट आएंगी. एक प्रेस कांफ्रेंस होगा और कैमरे पर अपनी पक्ष पेश करेंगी. और फिर कुछ मिनटों में ही मूवी खत्म हो जायेगी. इसी तरह अन्य खिलाडी भी ऐसा अभिनय करेंगे. और फिर होगा अगले चार साल का अग्रिम वादा. इस वादे को पूरा करने के लिए कई तरह की बाते की जाएंगी. सरकार और जनता से राहत की अपील होगी और खत्म हो जाएगा पदकों का अकाल. पता नहीं क्यों इस तरह के सिलसिले को हम अपना समर्थन देते हैं. और कब तक देते रहेंगे अपना समर्थन...

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

संगीत का जादू....

सात सुरों का जादू यानी संगीत हमारी आत्मा है। हम जब भी उदास होते हैं तो संगीत की बस एक मधुर धुन हमें ग़मों से हजारों मील दूर ले जाती है जहाँ हमारी रूह एक अलग शख्सियत में ढल जाती है। जहाँ हमारा कोई अपना अस्तित्व नहीं होता है और हम बस खुदा के बन्दे रहते हैं। उस नेकनीयती से हमारा दिल पाक-साफ होता है और प्यारी सी मुस्कान हमें अपनों के पास ले जाती है.
पर आज मैं संगीत का एक अलग अहसास सुनाने जा रहा हूँ जिसने इस जादू के प्रति मेरा सारा ख्याल ही बदल दिया। हर बार की तरह गरमी की छुट्टियों में एक बार अपने घर गया था। बचपन से ही मुझे गाना सुनने का बहुत शौक रहा है और मैंने इसे सदा जिन्दा रखने की कोशिश की है। मेरे दालान में दो बैल बंधे हुए थे.
अचानक मैंने देखा कि एक बैल काफी उग्र हो गया और उसने दूसरे बैल को मारना शुरू कर दिया। जब मेरे चाचा उस बैल को बचाने पहुंचे तो उस बैल ने उनपर भी झपट्टा मारा। मेरे चाचा सहम कर पीछे हट गए। पता नहीं क्यों मेरे दिमाग में एक ख्याल आया। मैंने धीरे से रेडियो को बैल के समीप ले गया। उस समय रेडियो में कोई पुराना गाना बज रहा था. बस, सच पूछिये पता नहीं कैसे बैल का गुस्सा छू-मंतर हो गया. मैंने धीरे से उसके गले पर हाथ फेरा. और अब बैल पहले की ही तरह नाद में पुआल चबा रहा था.
एक नन्हें से बच्चे की मुस्कान का हर कोई कायल होता है. कहतें हैं कि दो-तीन साल का बच्चा प्रकृति के मुताबिक हँसता है और प्रकृति के अनुसार रोता है. उसकी निश्छल हँसी हमें अपने बचपन में ले जाती है जहाँ हमने भी कभी मां का पल्लू पकरकर कभी रोया था. कभी जानबूझकर अपने बहनों के साथ झगरा भी किया था ताकि बहन के हिस्से का थोरा सा प्यार मिले. और वह प्यार हमें मिलता था मां की लोरी में. हर कोई उस लोरी पर अपने अधिकार जमाना चाहता था. आख़िर कोई क्यों ना करे. तो ये था लोरी के संगीत का जादू. जिस किसी ने लोक संगीत का स्वाद चखा हो वही उसका सुगंध बता सकता है. हर दिल अजीज और प्यारा सा अहसास है ये.

सोमवार, 14 जुलाई 2008

छूआछूत का नया रोग

छूआछूत का रोग सबसे खतरनाक रोग माना जाता है। पर यदि इससे हमारी कोई हित सधता हो तो भला हम भारतीय इससे पीछे नहीं रहते। स्वहित की बात हो और हम इसे अपने लिए नहीं अपनाएं, ये तो हो ही नहीं सकता। वैसे तो हमारे देश में छूआछूत की कई महामारियां मौजूद है. पर हाल के दिनों में जगह झपटने की गंभीर महामारी ने सभी को पीछे छोर दिया है.
ट्रेन हो या बस सीट को लेकर अपने यहाँ हमेशा से नोकझोंक चलती रही है। चाहे आप कितने भद्र पुरूष हों या फ़िर नामी बदमाश। ट्रेन और अन्य जगह आपको अपने सीट के लिए उग्र होना ही परता है. यदि आप सीधे-साधे हैं तो फिर आप अपने सीट से तो हाथ धोकर ही बैठ जाइये. ट्रेन में तो यात्रा करते वक्त रिज़र्व सीट के लिए भी जद्दोजहद करनी परती है. कई बार तो रेलवे टीटी तक फरियाद पहुँचने पर आग्रह अनसुनी हो जाती है.पर इस बार तो हद ही हो गयी.
अब तो ऑफिस में भी जगह के लिए मारामारी शुरू हो गयी. हमारे भाई साहब एक नामी मीडिया ग्रुप में काम करते हैं. वे जिस केबिन में बैठते हैं, उसके ठीक सामने दो लोग अपनी सीट खाली कर दूसरी जगह शिफ्ट कर गए। उनलोगों के खाली किए हुए बमुश्किल कुछ ही मिनट बीते होंगे की हमारे एक सहकर्मी की उसपर नज़र पर गयी।और फिर बस होना क्या था।
ये तीव्र सूचना हमारे बॉस तक पहुँच गयी। और बॉस भी तो मानो इसे लपकने के लिए तैयार थे। उन्होंने हमलोगों को भरोसा दिलाया कि हमलोग चिंता नहीं करें, ये खास जगह हमारी ही होगी। कोई नहीं जानता कि इस चमत्कार को मैं कब हकीक़त में बदल दूंगा. बॉस के इस दिलासे से तो हमलोग फूलकर कुप्पा हो गए. सबके मन में लड्डू फूटने लगे और खुशी का तो ठिकाना ही क्या.
पर ये रोग हमारे यहाँ तक ठीक रहे तो सही, पर जब दुसरे डिपार्टमेन्ट के लोग भी इसपर नज़र गराने लगे तो मानो हलचल मच जाएगी. पर खुदा का शुक्र है की अभी तक किसी की भी इसपर नज़र नहीं परी है और वो जगह है. हाँ तो खुदा के बन्दों खुशी मनाओ कि हम भी इस छूआछूत के शिकार हो गएँ हैं....

शनिवार, 12 जुलाई 2008

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...

गांव की दुनिया भी बहुत ही निराली होती है। चारों ओर हरे-भरे खेत और चहकती पंछियों की उन्मुक्त उरान से मन बाग़-बाग़ हो जाता है। मानो ईश्वर ने अपनी सारी कलाबाजी और गुण उसमें समेट दिया हो. जब भी शहर की भागदौर से मन टूटता है तो मन बरबस ही गांव की और खींचा चला जाता है.
आंखों के सामने डरवाजे पर बंधे बैल और उसके गले में बंधी घंटियों की आवाज मुझे अपनी और खींचती है। घंटियों की आवाज में कुछ ऐसा आकर्षण होता है जो आपको अपने पास बुलाती है। उस पल कुछ कहना चाहती है आपसे. सांसों में हर पल उसकी जम्हाई और कभी-कभी सर हिलाकर गुस्साना कुछ और ही कहता है. दरवाजे पर भूसी का ढेर और कभी-कभी बैल द्वारा रस्सी तोड़कर भूसी और अन्य चीजों पर झपटना एक अलग ही आनंद देता है. शायद उसकी ये हरकत हमें अपनी बचपन की याद दिलाती है. कुछ वो बचपन जिसे हमलोगों ने पैसे और नौकरी के चक्कर में न जाने कहाँ कैद कर रखा है.
कहावत है की हर इन्सान के पास एक प्यारा और नाजुक सा बच्चे वाला दिल होता है. पर इन्सान उम्र बढने के साथ-साथ उस दिल को भी भूल जाता है. हममें से हर कोई ये मानता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए. पर कुछ पाने की तीव्र लालसा हमें उस आनंद से दूर ले जाती है, जो हमारा और सिर्फ़ हमारा है. बचपन में रोते भी हैं और हँसते भी हैं. पर उस आँसू में भी यादों का हमसफ़र छुपा रहता है. जो प्यार का मीठा अहसास कराता है. पर जवानी में तो रोने पर भी आँसू नहीं निकलते हैं. हाँ गुस्सा जरुर आता है. और उस गुस्से में हम किसी की जान लेने से भी नहीं गुरेज करते. आख़िर ऐसा क्यों होता है. जब हर शख्स को इंसान ने ख़ूबसूरत दिल और मनमोहक जिस्म दिया है तो ये वैर क्यों? आख़िर क्यों पल भर में हम ईश्वर की खूबसूरत दुनिया को बरबाद करने पर तूल जाते हैं. यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब हर किसी को देना है.

जब आए मां की याद....

मां बहुत ही प्यारी और अच्छी होती है। मन के अन्दर ढेर सारी ममता को समेटे जब वो हमें अपने हाथों से खिलाती है, तो पूछो ही मत. जिंदगी की सारी खुशियाँ एक पल में मुट्ठी में बंद हो जाती है. सच में मां तो बस मां होती है और इसके आगे लफ्ज भी खामोश हो जाते हैं. शायद किसी ने सच कहा है कि ईश्वर हर प्राणी की देखभाल नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने मां को बनाया.
पता नहीं आज क्यों मां की बहुत याद आ रही है। घर से १२०० किलोमीटर दूर रहना बरी बात नहीं है। पर उससे भी मुश्किल है मां से दूर रहना। जब कभी मां की याद आती है तो उनसे फ़ोन पर बातें जरुर हो जाती है. पर वो प्यार नसीब नहीं हो पाता है, जो उनके हाथ के कोमल स्पर्श से हासिल होता है. जिंदगी यूँ तो मैनें बहुत कुछ खोया और उसके बदले पाया भी बहुत. पर घर से दूर रहकर सब कुछ पाकर भी कुछ खाली-खाली सा लगता है. ऐसा लगता है जमीं के नीचे मैंने आशियाना तो बना लिया पर देवी की प्रतिमा नहीं लगा पाया, जिनकी मैं आराधना कर सकूँ.
करियर और नौकरी को लेकर जिन्दगी इस कदर उलझ गई है की सब कुछ उदास-उदास सा लगता है. या यूँ कहे आँख में आंसू भी गाल भर ढलकर आगे नहीं जाते.इस बेबसी मैंने आंसूं से पूछा आख़िर ऐसा क्यूँ. उसने दर्द भरे शब्दों में जवाब दिया कि आप भी तो दर्द को अपने सीने में दफना कर हर ख्वाहिश को कत्ल कर देते हो. सच में ऐसा क्यूँ होता है कि एक सपना को पाने के लिए आदमी जी-जान से कोशिश करता और जब वह इसे हासिल हो जाती. पर बाद में वही हसीं सपना इसकी कीमत वसूलती है. ऐसा है तो हर इंसान के साथ होता है. मन को समझाने के लिए हम बस आँसू पीकर रह जाते हैं. है न सच.

रविवार, 6 जुलाई 2008

नॉएडा में कितने सेक्टर ?

नॉएडा में यूँ तो कई सेक्टर हैं. देल्ली के गोलचक्कर से सेक्टर एक-दो की शुरुआत होती है और फिर ये न जाने कहाँ कहाँ से दोहरे और तीहरे अंकों में पहुँच जाती है. इसमें कितने सेक्टर हैं ये तो मुझे नहीं मालूम, पर एक बार मैं सेक्टर १४१ तक जरुर घूम आया हूँ. सेक्टर की बात चली है तो मैं आपको एक दिलचस्प बात बताता हूँ. एक बार मेरे एक मित्र नवभारत टाईम्स में नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए. उस समय नॉएडा और आसपास नवभारत का नया एडिशन लॉन्च होने वाला था. वैसे तो मेरे दोस्त से कई सारे प्रश्न पूछे गए, पर एक प्रश्न पर जाकर वे अटक गए. उनसे पूछा गया की नॉएडा में कितने सेक्टर हैं और इसका जवाब देने में असफल रहे और अंतत उनका सेलेक्शन नहीं हो पाया.हाँ बात चल रही थी नॉएडा के पोश इलाके. मसलन सेक्टर १२,१४,१५,५५,५६,६२ के अलावा के कई सारे ऐसे सेक्टर हैं जहाँ मोटी पगार में काम करने वाले लोग काम करते हैं. वे लोग अपार्टमेन्ट में रहतें हैं और पोश इलाके की सुख सुविधा का उपयोग करते हैं. उनकी दुनिया अलग सी होती है. जहाँ उनके क्लास के ही लोग रह सकते हैं. उनलोगों ने ख़ुद को एलिट क्लास में मान रखा है, पर ऊचे मीडियम क्लास के तमगे से भी वो खुश ही रहते हैं. पर हर दीपक के नीचे जैसा अँधेरा होता है,वैसा ही हर पोश इलाके के अनधिकृत बस्तियां भी है. यहाँ आप दीहारी और ठेले लगाने वाले आदमी मिल जाएँगे. ये लोग ७००-१००० रुपये में एक रूम लेकर किराये पर ६-७ लोगों के ग्रुप में रहते हैं. उनकी भी अपनी एक अलग दुनिया होती है. पर और लोगों की तरह उन्हें किसी स्पेशल क्लास में शामिल होने का शौक नहीं है. मसलन sector-१५ के साथ अशोक नगर जैसी बस्तियां आपको मिल जाएगी. तो सेक्टर १२-२२ के पास रागुनाथापुर जैसा आदिम गांव मिल जाएँगे. बात यहीं आकर खत्म नहीं होती है सेक्टर ५५-५६ और ६२ के पास ममूरा जैसा इलाका आपको अपने गांव की याद दिलाता है. ऐसे बात भी नहीं है की यहाँ सिर्फ़ निचले क्लास के लोग ही रहते हो. अब तो मोटी पगार पाने वाले लोग भी वहां रहने लगें हैं. सीपी और नेहरू प्लेस जैसे मार्केट के स्थान पर यहाँ हर सप्ताह एक हाट लगता है, जहाँ आप अपने जेब की मुताबिक हर कुछ खरीद सकते हैं. बस सामान की क्वालिटी मत देखिये. ये इलाके कहने को तो अनधिकृत और गांव कहलाते हैं, पर ये किसी सेक्टर से अपने आपको कम नहीं समझते हैं. यहाँ रहने वाले लोग भी ख़ुद को सेक्टर का निवासी बतातें हैं. तो अब तो आप बता ही दीजिये की नॉएडा में कितने सेक्टर हैं.

रविवार, 29 जून 2008

नई शुरुआत

आज से एक नई जिन्दगी की शुरुआत कर रहा हूँ। करीब छः महीन पहले मैंने एक शुरुआत की थी अपनापराया ब्लॉग में मैं कुछ अपने और दूसरो के बारे में बताऊंगा. पर समय ने कुछ इस कदर मुझसे दुरी बना ली की पूछो ही मत. मैं अपने काम में इस कदर खो गया की कुछ अपने लिए भी लिखना मुश्किल हो गया. और एक बार जब दोस्तों ने हौसलाफजाई की है तो मनोबल मेरा ऊँचा हो गया. और फिर सपना तो सपना होता है. मेरा सपना हकीक़त में बदलता दिखा और दुगुने जोश के साथ मैं आपके सामने आया हूँ. आशा है कि आप मुझे अपना प्यार देते रहेंगे.